कहते हैं,
बच्चे के पैदा होते ही,माँ को मिलती है एक भाषा,
भाषा जो केवल उसकी और
उसके उपज की दाय है.
बच्चा सीखता है बोलना,
माँ मुस्कुरा देती है,
आँखों से, होंठों से,
माँ गुस्सा करती है,
बच्चा सहम जाता है,
आँखों से, केवल आँखों से
मानों "नाल" का कटना
महज़ औपचारिकता हो
बच्चा करता है इजाद,
स्वरों के खिलौनों से एक भाषा,
और माँ निश्चिंत, मानों
कोई पूर्वज्ञान हो.
चाकू,
और बच्चा चाकू, डर और प्याज ले आता है,
प्याज,
और बच्चा आँखें मलने लगता है.
बिल्ली,
और वह उठाने लगता है बिल्ली को,
रोटी,
और उसमें मलाई-चीनी लगी गोल-गोल उसके हाथ में.
कई भावों का गट्ठर लिए होता है,
एक शब्द
बच्चे भाषा नहीं दिल
बोलते हैं,
एक आवश्यक संगीत,
जिसकी तारें माँ के गर्भ
में,
तैयार होती हैं.
मुलायम गर्दन
को उठा जब तकता है शिशु
अपलक माँ को,
मानों सोख रहा हो एक तरल
भाषा
ऐसे गहन-प्रेम की भाषा
जिसकी तालीम का अता-पता
नहीं.
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