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Friday, August 16, 2013

मैं तुम हूँ.... तुम मैं हो !



मैं किसी कट्टर वाद का फरमान नहीं,
न कोई संवैधानिक चेतावनी,
न किसी संक्रामक गुप्त रोग
धूम्रपान, गुटके का इश्तिहार,
जिन्हें देख मन और छटपटा जाए,
मन भर, भर जाए भय हिया में,  

 अंखुआ भर हूँ मैं,
टिफिन की चार रोटी, एक अंचार और एक हरी सब्जी,
मेरी बजूद की आप बलाएँ लेते हो,
मुझसे ताल्लुक रखती है औसतन सारी दुनिया,
मैं अपने चौके की गणेश की परिक्रमा हूँ,
बकायदा मानुष हूँ, ठोंगे भर जुगाड़ हूँ,
मुझमें इयारी का लूर है, जो किसी का मुदई कतई नहीं,
मैं अनेरिया हूँ, जो अनेरुआ उग ही आता है,
इतना थुथुराया हूँ की थेथर हूँ,
मैं एक शातिर बोका हूँ,         
जिसे हलख से ज़बान गायब करने का प्राकृतिक हूनर है,
मैं तुम हूँ,
तुम मैं हो.  

Wednesday, July 10, 2013

कविता : हमारे सपने तुम्हारे स्वप्न नहीं हैं



मानु* का खोल पहनाकर, अभयारण्य* के नाम सौंपकर,
हम रहेंगे चैन से, सपना मीठा दिखाते रहे,
हमने आँखे मूँद ली, देख कर रौशन मीनारें,
और तुम्हारे फेंके बोतलों में, दिवाली यूँ मनाते रहे,
याद रखो ऐ सुखनवर, धरती को पाला है हमने,
तुम हमारी धरती पर, अपना आराम, उगाते रहे,
हमने न पूछा था तुमसे, क्या है हमारा पता,
तुम पते को बंजर बता, अक्सर हमें धकियाते रहे,
बरगद सा दिल नहीं है, न बड़ा पैमाना हमारा,
कि फौजियों की बूट को, सर-आँखों पर सजाते रहे
धूल में खो जायेंगे हम, खाक-राख हो जायेंगे,
तुम्हें भी गर्त कर छोड़ेंगे, गर यूँ अपना कह सताते रहे.
झंझावात है हम, शंख में बैठा नीरव उद्घोष हैं,
तुम नियामक न बनो, हम अपने नियम बनाते रहे.
-------------------------------------------------------------------------------
मानू – असमिया में इंसान के लिए
अभयारण्य – अंडमान में एक अभयारण्य है, नाम है जरावा आदिवासी अभयारण्य. इस अभयारण्य में जरावा आदिवासी रहते हैं. पर्यटक अक्सर उन्हें लुप्तप्रायः प्राणियों की तरह देखने जाते हैं.

Tuesday, May 21, 2013

कविता : क्या वक्त बदला है?

 वक़्त तू बड़ा बेरहम निकला,
ऐसा कुछ भी तो नहीं किया तूने,
कि गफलत में रहूँ कि तू बेमुरव्वत नहीं,
तूने असमय उगा दीं मेरी छातियाँ,
और कर दिया हवाले, कपड़ो की लुगदियों के.
तूने हड़बड़ी दिखाई,
... खेलने न दिया गुड्डे-गुड्डी का खेल,
सामने कर दिया एक सांस लेता गुड्डा,
जो साँसों की नमी से मरहूम था. 




साभार : गूगल चित्र


ससे पहले कि मैं सीख पाती बाल-गूंथना,
तूने मुझे,
खूबसूरत होने का इलज़ाम लगा,
कर दिया मेरे वालिद के भय के हवाले,
कि जिसने पगड़ी उतरने के भय से,
नथ उतराई को कर दिया किसी और के हवाले.

यूँ, मूँह न फेर ऐ वक्त, सुन !
इससे पहले कि मैं आँक पाती अपनी ख्वाहिशें,
कोई मेरे माँस के वज़न पर फाँक गया मेरा बचपन.
मेरे उपजाऊ होने से पहले धर दिया बीज,
और मान लिया, एक कुशल मालिन,
पर हिरन की आँखों की तरह धँसे रह गए कुछ अबोध सवाल,
सवाल, जिसकी कूंजी गुमा दी, बापू ने, ससुर ने, पति ने और समाज ने.
कि जब खेलने-कूदने के दिन थे मेरे, तब मन बहलाने के लिए,
जबरन जनना पड़ा मुझे अपने जैसा ही एक और बच्चा.

वक्त, बहुत वक्त बीत चूका.....
अब हम आमने-सामने हैं...बता मुझे...
ज़िन्दगी पर हाथ आजमाने से पहले...
तूने क्यों थमाई हाथों में दर्द की पोटली ?
क्यों एक को बिस्तर खराब करने के सारे मौके दिए?
उसे सुलझाया, कच्छे से फुल पैन्ट बनाया, रूमानी किस्से दिए.
और मुझे कस पकड़ साड़ी पहना दी, धीरे-धीरे जिबह किया, बेवक्त सदमे दिए?
कानों में फुसफुसाते रहे- शुक्र करो! तुमने दुनिया तो देखी !

वक्त तुम्हारा निर्दयी चेहरा यूँ शर्म से तार-तार क्यूं है?
वक्त! क्या वाकई वक्त बदला है?

Thursday, April 25, 2013

[कविता : सुनो जी !]



सुनो जी,
कहे देती हूँ तुमसे,
मेरा ताल तुम्हारे ताल से नहीं मेल खाता,
न ही तुम्हारे धून पर टिका हुआ है मेरा संगीत,
तुम्हारी भव्यता से भले ही पड़ जाए मद्धम मेरी आवाज़,
पर मैं बेसुरी नहीं.




तुम सौ दफा, सौ दलीले दे,
खुद को कर सकते हैं साबित बिलकुल साबुत,
पर भावों से उफनते कविता में,
फूलों से भरे शाख की बात न कभी आई है, न आएगी.  

नहीं सुननी-समझनी मुझे तुम्हारी कवितायेँ,
मुझे तो बस टमाटर की खटमिठी चखनी है,
जिसमें अब भी बुझे चूल्हे की ताप होगी,
जो गाढ़ी होते होते और चटखारी होगी,
मैं पूछती हूँ, तुम्हे खटमिठी पता है?  
माफ करना मुझे तुम्हारी कविता नहीं पता !

क्यों इतना गुस्सा?
जब कहूँ.....
आज खिडकी से ताकती रहूंगी,
बच्चों को स्कूल से लिवा लाना,
बर्तन बासन सरिया देना.

क्यों इतना मूँह बाना, जब कहूँ....
कि मैं निमित्त मात्र थी,
एक भी ऐसा फ्रेम नहीं जिसमें फिट बैठती,
न रंग, न गुण, न समाज के उठ-बैठ का सलीका, प्रेम तो बिलकुल नहीं,  
कि मैं न थी, परिवार था, परिवार का पैसा था.

क्यूं इतनी त्योरियाँ चढ़ाना ? जब कहूँ...
क्या-क्या हुई हूँ मैं,
तुम्हारे हवस का बिस्तर हुई हूँ,
तुम्हारे गुस्से के लिए जुटाया पीठ हुई हूँ,
वक्त-वेवक्त झाड़ू से जख्म बुहारे हैं मैंने,
तारे बुहारे, पेड़ बुहारे, जंगल-पत्थर सब बुहारे,
यूं डब्बे में इकठ्ठा कर, दिमाग के कोनों में कब से फ़ेंकती आ रही हूँ मैं.


क्यूं आँखें छोटी हुईं, जब कहा...
कि अब तक आपकी कविताएँ ही सुनती आ रही हूँ,
मेरा देखा, समझा, सुना सब आपका ही,
मेरा क्या? मेरे अनुभव क्या?
सब तो लिखा किया आपका ही !

सुनो जी,
यह बूझ लो,
मुझमें भी ब्रज बसा है, वृन्दावन भी,
मुझ भी खींचती हैं बंसुरिया,
तुम्हारे छह फीट के डील-डौल से परे भी बस्ती है दुनिया.
तभी कहती हूँ....अब मैं करवा-चौथ का तीज नहीं,
न ही मेरे गर्व का सबब है घर की चौकी-चाकरी,
मेरी ईमानदारी, मेरा विश्वास ही मेरी रीढ़ है, मेरा गर्व है.
जो कहती है तुमसे,
तुम्हारे लिए अपने समूचे प्रेम के बावजूद,
छोड़ सकती हूँ सब कुछ.
दो जून ख़ुशी खातिर.
क्योंकि तुम जैसा ही एक अदद इंसानी दिल,
इस सीने का भी हिस्सा है.

Tuesday, April 23, 2013

[कविता : धरती उनकी भी है]


जिनके सर पर छत हो,
उनके लिए धरती घर होती है,
जिनके हाथ में रोटी हो,
उनके लिए धरती शहद का छत्ता होती है,
जिनके देह पर शॉल हो,
उनके लिए धरती गर्म होती है,
जिनके बगल में माशूक हो,
उनके लिए धरती रूमानी होती है,
जिनके हाथ में प्याला हो,
उनके लिए धरती सपना होती है, 

















धरती के लाखों रंग उनके भी होते हैं,
जिनके सर शम्बूक के हैं,
हाथ एकलव्य के और दिल कबीर का,
जो बिरसा हैं, जाबली सत्यकाम हैं,
जो मनुष्य से हैं, मनुष्य नहीं,
जिनके ज़मीं का हिस्सा किसी का बकाया है,
जिनने अपने आकाश, चाँद सूरज खातिर बहुत चुकाया है,
जिनके बगल में कोई नहीं,
केवल ये हैं, इनके मवेशी, इनका घर.
जिनकी कोई मांग नहीं,  केवल जबरन माँगा है,
जिन्होंने अपना बचपन धरती को जन्नत मानने में गुज़ारा है
और अपनी जवानी आकाश तक चीखें,
और धरती के गर्भ में अपनी आहें पहुंचाने में गुजारी है,  
जो आज भी दो बांह धरती के मोह में  
सदियों से दधिची की हड्डिया ढूँढ रहे थे. ढूँढ रहे हैं.

Wednesday, April 17, 2013

-----------{कविता : कविता मुमताज सलीम की}------------


(इस कविता में कविता कम किस्स्गोई अधिक है, जैसे अफसाना लैला-मजनू की वैसे ही कविता मुमताज सलीम की)
                                                                                               
बच्चियों के अलीफ बे ते से के लिए,
बाल पकाने के बाद,
मुमताज़ ने एक आखिरी बार, 
सलीम से ताज देखने की बात कही,
सलीम ने उगलदान में पान थूका और अपनी जेब थपथपा दी.

शोखी के दिनों के बहुत दिनों बाद,
मुमताज़ ने सलीम का हाथ हाथों में लेते हुए कहा-
सलीम कुछ पूछती हूँ तुमसे !
जैसे गुजरा है हमारे साथ
वैसा क्या कुछ गुजरेगा बच्चों के साथ?
उनकी लम्बी उम्र की दुआ के बावजूद,
क्या उन्हें भी हमारी तरह,
कुछ-कुछ अधूरा-अधूरा ही लगेगा ?
कुछ-कुछ छूटा-छूटा सा...
कुछ-कुछ जैसे पूरा होना हो बाक़ी...
सलीम क्या यह मायने रखता है
कितनी दूर तलक वे जाएंगे ?
या की यह कि उनके बच्चे भी...
खुद को छूटा-छूटा सा ही पायेंगे ?
क्या, अधूरी ख्वाहिशों का गट्ठर है यह जीवन सलीम?
मुमताज कहती रही...
ओ मेरे हमनवा...मैं अब समझ पाई हूँ...
हम सभी बच्चे रह जाते हैं...
कुछ न कुछ सपनों का जूठा रह ही जाता है.
मुमताज कहती रही...
गोया तुम शिकायत से गुरेज़ खाना,
अधूरे जीवन से तो कतई नहीं,
कहते-कहते मुमताज ने बंद कर लीं आँखें...
सुनते-सुनते सलीम और सुनने की हसरत में बदहवास हो चला....
मुमताज़, सलीम से, दुनिया-जहान से रहे-सहे गिले-शिकवे कर मिटटी हो चली....
सलीम हौले हौले साँसों की गिनती भूल चला,
सारी कायनात सर्द, सख्त और संगदिल हो चली,
भरोसे, इन्सानपरस्ती को तन्हाई और मुफलिसी के जाले लग चले, 
यूँ अपनी हज़ार कोशिशों के बावजूद मुकर चला सलीम,
इजहार-ए-इश्क का मारा सलीम...... रगों में मुमताज़ को लिए
रोज़ छत पर बैठे-बैठे बौराता फिरता रहा
इस तरह एक दिन विश्वास के फेरिहस्त से खुदा, मुमताज़ और खुद को वह तखलिया कह चला,
जिसे आने की इजाजत मिली...
वहाँ आज उसकी तीन बेटियाँ फूल चढ़ाती हैं.
________________________   - अनुज -   ____________________________
 

Tuesday, April 9, 2013

--- कविता : “कुछ” और “कुछ’ ----


हरखू “कुछ” है,
शुक्र है “कुछ नहीं” नहीं
दरअसल यह “कुछ नहीं” नहीं,
होना अक्सर,,
बजट में अचानक उसका हो जाना होता है.






बंसल साहब,
भी कुछ हैं,
... कागजों में सेंत रखते हैं अपना भविष्य
ईंटा-बालू के लिए पाई-पाई जोड़ते हैं वर्तमान,
और कुछ की ख्वाहिश में,
घटा रहे हैं चेहरे का नमक
.





सुना है इस बरिस लेमनचूस पकड़ाई है सरकार, 
 २००० छूट दिए रहे,
और ऐंठी है, जो किये बहुत किये
सुना है,
करोड़ पर एक्के बार लगेगा टैक्स,
और इस “कुछ” के चक्कर में
सरकार अपना “सबकुछ” बचाए खातिर
“कुछ-कुछ” से शुरू कर, “सबकुछ” करने को तैयार रहती है.
इस तरह “कुछ” और “कुछ” का खेला चलते रहता है.
_________________________________________________________________


Wednesday, April 3, 2013

कविता : उन्हें पता है....



उन्हें पता है
किसी आम सभा में खड़े होकर,
आम भाषा में वे आज भी चिल्ला सकते हैं,
और आम जन अपना पैसा-खाना ले अपना रास्ता नाप सकती है.

उन्हें पता है,
तर्कों के बाढ़ में अब वे उस पेड़ के तने को बमुश्किल पकड़े हुए हैं,
जो कभी भी उखड़ सकता है, जिसे लील सकता है उनका ही किया हुआ कोई वादा.
...
उन्हें पता है-
उनके तर्क अब अलबम में खराब हो रहे तस्वीर हैं,
और वह अतीत जो कभी संगमरमर हुआ करता था,
आज चमगादड़ों के गढ़ हैं जहाँ, 
अंतर्जातीय युगल अपनी प्रेम-पिपासा को शांत करते हैं.

उन्हें पता है-
उनके भाषणों से उपजी राख उनके ही बालों की जड़ों में सनी है
उनके शब्दों का ज़हर धंसा है कांच बनकर बच्चों की आँखों में.

उन्हें पता है,
तख़्त का बहुत बड़ा हिस्सा अब उनका है
जिनकी भूख...दो-तीन रूपये पर राशन मुहैया करने पर भी
महज़ रिपोर्टों में ही मिट पाती है
जिन्हें धर्म और जाति से कोई शिकायत नहीं,
शिकायत तो वे करते हैं जिन्हें विकल्प नाम की आजीवन लाटरी लगती है.

उन्हें पता है,
कभी भी बदल सकती है तस्वीर
बोरियत की उबकाई खतरनाक हो सकती है....
संसद और संसद के बाहर भारत इण्डिया, इण्डिया भारत करने वाले
स्त्रियों के तालुकदार, मोबाइल पोर्न के रखवाले,
अपने दोगले चुनाव की दुहाई दे, जनता की कसमें खा,
अपनी तोंद सहलाते हुए, किसी भी कोने को गिला कर सकते हैं,
ममता मुलायम हो सकती है और मुलायम मनमोहन.

Monday, March 11, 2013

कविता : बसंत के बाद बसंत की याद

साभार : गूगल चित्र
एक तडके सवेरे,
कोयल बन कुहुकने लगी बसंत...
पेड़ की उस शाख पर जिसे नहीं कटने देने पर,
बच्चों ने सनकी बुढ़ा करार दिया.
बसंत ने निपट-निठुराई की,
कान सुलझाते रहे कुहुकते बसंत के कोड,
बसंत कुहुकती रही...
जाओ अब तुमसे यारी अच्छी नहीं...
मैंने कोयल से नज़रे मिलायीं, नज़रे झुका लीं,
मैंने सुना,
भाग चिरैया भाग,
भाग चिरैया भाग.
सौतन लोग पीर दूजे की न जाने है.

Friday, March 8, 2013

कविता : मृत नवजात


उसने अपनी माँ के सर पर आँचल देखा,
देखा बालों के बीच ढेर सारा सिंदूर,
अपनी अधखुली अधमुंदी आँखों से,
उसने एक सुन्दर सहमा चेहरा देखा,
चेहरे पर घूरती आँखों का पहरा देखा,
अपने होने से पहले ही, 
उसने उम्र की उम्र से पहले हरकत देखी,
होंठों के पपड़ी पर खामोशी का तांडव देखा,
उसने अपनी माँ की आँखों में बहुत कुछ देखा,
उसने जो देखा,
देख बस, नई जुड़ती साँसों की आँखें मूंद दी.
डॉ. ने उसे मृत नवजात करार दिया,
....उसने माँ की आँखों में अपना कल देखा.

Sunday, February 24, 2013

कविता : उपेक्षित


उसकी आँखों में वर्फ जमा है,
जो झपकती नहीं पलकें..
कि इतने में तो...
बच्चियाँ औरत हो जाती हैं..
माएँ विधवा,
और गाँवों से नाम गुम...
 
उसका चेहरा सख्त है,
और उम्र का तकाज़ा मुश्किल,
उसके चेहरे पर,
हमउम्रों के नाम गुदे हैं,
 वह पढने को जाता है दिल्ली,
दिल्ली उसे पढ़ नहीं पाती,
गगनचुम्बी इमारतों से
उसे अपनी पहाड़ियाँ बड़ी होती नहीं दिखती,
 
घाटियाँ गहरी और संकरी होती दिखती हैं,
 
जहाँ कंकाल बन जाने को दफन कर दी गई
सैंकड़ों बुलंद आवाजें.
 





खौफ बन रगों में खून बहता है बदस्तूर,
जहाँ गैरमुल्क की निगाहों से देखते हैं,
मुल्क के बाशिंदे,
वहाँ मुल्क से वफाई का उलझन ताउम्र कायम रहता है.
वह सख्त चेहरा जब उठा लेता है हथियार,
तो मासूमों को बरगलाने का बहाना दे
पड़ोसी मूल्क की तरफ हो जाती है उंगली.
 
दो मजहबों, दो सीमाओं, दो सोच में बंट जाता है चेहरा,
जिसकी शिनाख्त से कतराते हैं ज़िम्मेदार,
कि जैसे बनाई जाती है औरत
वैसे ही तैयार किये जाते हैं सख्त चेहरे.
जो तालीम को जाते हैं दिल्ली.
और दिल्ली अपनी धुनी रमाये रहती है.

Monday, February 18, 2013

मैं नहीं दे सकती उनका साथ



तीनों मेरी बगल में बैठते हैं,
कभी यह तो कभी वह,
पर रोज़ बैठते हैं,
कभी कोशिश करते हैं,
कभी बेशर्मी से जमा देते हैं तशरीफ,
जैसे कोई तार जुड़ा है अभेदी...
तीनों के बीच...

 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 हजार कोशिशों के बावजूद,
जब मेरे जिस्म के किसी हिस्स्से का...
नहीं पाते स्पर्श,
तो अपनी निरी बुद्धि पर...
उन्हें सुखद आश्चर्य होता है,
चेहरे पर मन की गालियाँ लिखी होती हैं,
भावों में घृणा और तिरस्कार मिली होती है..

 कि मेरा जस का तस घर वापस आ जाना,
एक फतेह से कम नहीं होता.

 आप इन्हें
कैशोर्य, प्रौढ़ और वृद्ध कह सकते हैं...
तीनों मेरी मंजूरी के बगैर
मुझसे गुज़रना चाहते हैं-
एक मुकम्मल होने के लिए...
एक स्वयं को मांझने के लिए...
और आखिर अपने पछतावे को घुलाने के लिए.
 

 मेरी लाख कोशिशों के बावजूद-
मैं नहीं दे सकती उनका साथ,
क्योंकि जिनका गला खखार से भरा होगा   
वे, यही तीन होंगे.

कोई पूछता !

चावल,
बोरे में बचा था कुछ चावल,
चावल- जिससे मिटाते हैं भूख,
चावल बस एक समय का.

 इंतज़ार,
रात का इंतज़ार,
स्याह होने का इंतज़ार,
इंतज़ार-तारों का नहीं, सिगरेट के टुकड़ों का.

 उम्र,
मोमबती सी पिघलती उम्र,
उम्र के जाने के साथ जाती नौकरियाँ,
उम्र की कैद में सिमटी नौकरियाँ.

 उम्मीदें,
कूड़े के हवाले हैं उम्मीदें
उम्मीदें-जिनपर खड़ा है आदमी,
उम्मीदें-जिनपर लगे हैं संशय के जाले.

सवाल,
सब पूछते सवाल दर सवाल,
सवाल-जिसके लच्छे छोड़ चटखारे लेते आदमी,
सवाल- पढ़ाई खूब, नौकरी छोटी-मोटी?.

पूछता,
मुझसे कोई तो पूछता-
पूछता- कैसा लगता है
अर्जियों के जवाब में बंद, सपनों का इंतज़ार?
पूछता- कैसे कर सकता है
सपनों से थका आदमी किसी भी गुलामी का इंतज़ार?
पूछता- मुझ युवा पर दंभ भर्ती सरकार
कैसे कर सकती है योग्यताओं को तार-तार?
कैसे दे सकती है क्रूर दिलासों का व्यापार?
कि कोई तो जाए, गुहार दे, चीखे-चिल्लाए,
कि हमारे वोट पर ऐंठती सरकार!
टूट-फूट गए हैं हम, अब और न होता इंतज़ार.