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Monday, August 12, 2013

कविता : ग्लैडिएटर





थकहार जब कुछ न हुआ...
जब किसी ने न ली सूध, तो मजबूरन.....
पेड़ों ने अपनी छाया संग किया समवेत विरोध,
जंगलों को पक्षियों ने दिया अपना संधिपत्र,
कीड़ों ने तान लिया सीना,
वे निकले जत्थे के जत्थे,
और हवाओं ने पेड़ों का संदेसा मनुष्यों को सुनाया,

तुम, तुम्हारी  सभ्यता लकड़हारे थे,
इसलिए दुधारी दाव लिए इधर-उधर घूमते रहे,
जारी करते रहे हरियाली को हलाल करने के फरमान, 
हमारी सुरक्षा के लिए बनती रहीं योजनाएँ,
कि कैसे बनाया जाए एक भव्य कत्लगाह, एक आलीशान रेगिस्तान, 

हर कोई तबाह होता है,
केवल मनुष्य नहीं,
चींटी और दिमक भी करते हैं जी तोड़ मेहनत,
केवल मनुष्य नहीं,
अपने समाज के साथ वे भी करते हैं गुज़ारा,
केवल मनुष्य नहीं.

मनुष्य, मनुष्य था सो वह मनुष्य ही रहा,
पेड़, पेड़ थे इसलिए आखिरी साँस तक लड़ते रहे मनुष्य से मनुष्य खातिर.
जिस दिन गिरा आखिरी पेड़, मनुष्य भी उसी दिन गुज़र गया.

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