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Wednesday, July 31, 2013

कविता : तब मैं सोचूंगा..



तुम मेरा अंगूठा बन जाओ, 
मेरी ज़बान भी..
मेरी पेशानी पर पड़े बल भी ले लो उधार, 
झुर्रियों से झाँकती उम्र से कर लो एक बार साझा.. 

एक बार ओढ़ लो मेरा लबादा, 
जानो अंगूठे के छाप होने का षड्यंत्र, 
जानो जबान का गूंगा होते होते अचानक तल्ख़ होना,
सदियों से पेशानी पर अफसोस ढोते ढोते अचानक पड़ जाना उनमें बल,
झुर्रियों में उलझे उम्र से जानो भूख का सामान जुटाने की यातना,
फिलहाल तुम बस इतना करो कि बुद्ध सा त्याग दो अपना उपनाम.
एक मनुष्य सा करो मेरा सामना....
रूँध आये गले से कहो...हाँ हम तुम्हारे साथ मनुष्य सा नहीं रह पाए...
तब मैं सोचूंगा...कैसे पेश आया जाए तुम्हारे साथ...
जिनावर सा....या मनुज सा...

Tuesday, July 30, 2013

खुले दिल से गले मिलोगे ?

love-hug-eightfoldpath
Courtsey : www.inspirationonline.com

अभी कहाँ मंझा हूँ,
कितना खुरदुरा है मन,
अभी तो विभक्त होना है खुद से,
अपनी ही छाया से सीखना है होना नम्र,
कभी न ख़त्म होने वाली जद्दोजहद से सीखना है मांझना विवेक,
दूर जंगल में घाँस की बढ़ती जड़ों से सीखना है धैर्य,
रात भर बनते ओस से सीखनी है शांति,
तन्हाई से सीखना है होना साझीदार,
अधीरता से सीखना है होना ईमानदार,
मैं को जब कर आऊंगा दफन,  
और कुछ न होने से कुछ होने के बूझ लूँगा अर्थ....
तब प्रेम बोलो तुम...
खुले दिल से गले मिलोगे ? 

Friday, July 12, 2013

फॉर योर इन्फोर्मेशन : एक आदमीनुमा आदमी का टाईम-टेबल

एक आदमीनुमा आदमी,
एक वलय को रोज़ करता है पूरा.

तड़के-सवेरे के काज निपट,
एक-दस मिनट के लिए,
चाय की चुस्कियों और अखबार की हस्तियों में रहता है मशगुल,
एक-दस मिनट बाद,
एक-दस साल पुरानी घड़ी पर फेरता है नज़र,
घुटने पकड़ उठता है,
बच्चों के न उठने पर बिगड़ता है,
और बीबी से पूछता है, लिस्ट,
लिस्ट के इर्द-गिर्द उसने रच लिया है अपने जीवन का भूगोल.

लिस्ट ले, पड़ोसियों को दुआ-सलाम करते निकल पड़ता है, मंडी,
मंडी में ढूँढता है सबसे सस्ती सब्जियाँ,
वापस लौटते बच्चों के लिए खरीदे लाता है,
दस रूपये में दस लिखो-फेंको पेन.

कुल जमा दस मिनट,
अपने इष्ट ग्रुप के सामने घुमाता है बत्ती,
फिर अपने सबसे फेवरेट गुरू के फोटो के चरण छू,
लेता है देवता घर से एग्जिट,
कपड़े बदलते हुए, नाखुनो को रगड़ता है लगातार,
फिर माँ के चरण छू, बलाएँ ले,
बीबी से हिदायतें, घर की चिंताएँ ले,
निकलता है ऑफिस,
रस्ते में, सारे मंदिरों पर, बस में से ही झुकाता है शीष,
एक-तीन बार चूमता है हाथ,
फिर हाथ से चूमता है माथा.

ऑफिस में नियत ढंग से करता है चिक्कन-चिक्कन बात,
नियत समय पर खाता है टिफिन,
टिफिन दौरान, आदतन, उंडेलता है गुबार,
बड़ा होता, हाथ से छूट रहा है लड़का,
बड़ी होती, नफीस-ज़हीन हो रही है लड़की,
जेब, लिंग निर्धारण में कन्फ्यूजिया गई है,
किसे आगे बढ़ाया(पढ़ाया) जाए, किसे नहीं.
फिलहाल, लड़की को डॉक्टरी न करने देने के लिए सोच रहा है सौ बहाने.

वापसी में पूरी करता है एक और लिस्ट,
आदतन, पाई-पाई का हिसाब रखनेवाला आदमीनुमा आदमी,
पकड़ लेता है ग्यारह नंबर,
उबाऊ नज़र से, डीकोडिफाई करते चलता है,
अपने जैसे यंत्रवत आते-जाते लोगों के उबाऊ-अपढ़ चेहरे,

बीच में लकदक करती मॉलों से होती हैं भेंट,
ठिठक, अपलक....
ख़ुशी और मुस्कानों के समझ लेना चाहता है गणित,
एक कुम्लाही कसक कि वह भी हो सके शरीक, फिर कुम्लहा जाती है,
अपने विजडम से मानता है, कि गलत है पोसना कोई भी सपना,
कि ठोंगे भर तनख्वाह में,
खरीद नहीं सकता वह, खुशी का थोड़ा भी भूजा.
तदन्तर शरीक-ए-हयात के आइडिया को करता है बर्खास्त,

अपने सधे क़दमों से, बचते-बचाते, पहुँचता है घर,
जूते उतार, धोता है हाथ-पैर,
वापस सिंगल पिस आने के लिए, बत्ती दिखा, अपने ईष्ट का होता है शुक्रगुजार,
मेज़ पर करती है चाय इंतज़ार,
एक-दस मिनट, टीवी पर बांचता है अखबार,
बच्चों से करता है थोड़ा बहुत बात-व्यवहार,
और अंत में,
बीबी को सारी रपट दे, शायद नींद में निकालता है सारे गुबार.

इस तरह पूरा करता है एक घेरा,
एक आदमीनुमा आदमी.
___________________________________अनुज_______________
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Wednesday, July 10, 2013

कविता : हमारे सपने तुम्हारे स्वप्न नहीं हैं



मानु* का खोल पहनाकर, अभयारण्य* के नाम सौंपकर,
हम रहेंगे चैन से, सपना मीठा दिखाते रहे,
हमने आँखे मूँद ली, देख कर रौशन मीनारें,
और तुम्हारे फेंके बोतलों में, दिवाली यूँ मनाते रहे,
याद रखो ऐ सुखनवर, धरती को पाला है हमने,
तुम हमारी धरती पर, अपना आराम, उगाते रहे,
हमने न पूछा था तुमसे, क्या है हमारा पता,
तुम पते को बंजर बता, अक्सर हमें धकियाते रहे,
बरगद सा दिल नहीं है, न बड़ा पैमाना हमारा,
कि फौजियों की बूट को, सर-आँखों पर सजाते रहे
धूल में खो जायेंगे हम, खाक-राख हो जायेंगे,
तुम्हें भी गर्त कर छोड़ेंगे, गर यूँ अपना कह सताते रहे.
झंझावात है हम, शंख में बैठा नीरव उद्घोष हैं,
तुम नियामक न बनो, हम अपने नियम बनाते रहे.
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मानू – असमिया में इंसान के लिए
अभयारण्य – अंडमान में एक अभयारण्य है, नाम है जरावा आदिवासी अभयारण्य. इस अभयारण्य में जरावा आदिवासी रहते हैं. पर्यटक अक्सर उन्हें लुप्तप्रायः प्राणियों की तरह देखने जाते हैं.