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Friday, August 16, 2013

मैं तुम हूँ.... तुम मैं हो !



मैं किसी कट्टर वाद का फरमान नहीं,
न कोई संवैधानिक चेतावनी,
न किसी संक्रामक गुप्त रोग
धूम्रपान, गुटके का इश्तिहार,
जिन्हें देख मन और छटपटा जाए,
मन भर, भर जाए भय हिया में,  

 अंखुआ भर हूँ मैं,
टिफिन की चार रोटी, एक अंचार और एक हरी सब्जी,
मेरी बजूद की आप बलाएँ लेते हो,
मुझसे ताल्लुक रखती है औसतन सारी दुनिया,
मैं अपने चौके की गणेश की परिक्रमा हूँ,
बकायदा मानुष हूँ, ठोंगे भर जुगाड़ हूँ,
मुझमें इयारी का लूर है, जो किसी का मुदई कतई नहीं,
मैं अनेरिया हूँ, जो अनेरुआ उग ही आता है,
इतना थुथुराया हूँ की थेथर हूँ,
मैं एक शातिर बोका हूँ,         
जिसे हलख से ज़बान गायब करने का प्राकृतिक हूनर है,
मैं तुम हूँ,
तुम मैं हो.  

Monday, August 12, 2013

कविता : ग्लैडिएटर





थकहार जब कुछ न हुआ...
जब किसी ने न ली सूध, तो मजबूरन.....
पेड़ों ने अपनी छाया संग किया समवेत विरोध,
जंगलों को पक्षियों ने दिया अपना संधिपत्र,
कीड़ों ने तान लिया सीना,
वे निकले जत्थे के जत्थे,
और हवाओं ने पेड़ों का संदेसा मनुष्यों को सुनाया,

तुम, तुम्हारी  सभ्यता लकड़हारे थे,
इसलिए दुधारी दाव लिए इधर-उधर घूमते रहे,
जारी करते रहे हरियाली को हलाल करने के फरमान, 
हमारी सुरक्षा के लिए बनती रहीं योजनाएँ,
कि कैसे बनाया जाए एक भव्य कत्लगाह, एक आलीशान रेगिस्तान, 

हर कोई तबाह होता है,
केवल मनुष्य नहीं,
चींटी और दिमक भी करते हैं जी तोड़ मेहनत,
केवल मनुष्य नहीं,
अपने समाज के साथ वे भी करते हैं गुज़ारा,
केवल मनुष्य नहीं.

मनुष्य, मनुष्य था सो वह मनुष्य ही रहा,
पेड़, पेड़ थे इसलिए आखिरी साँस तक लड़ते रहे मनुष्य से मनुष्य खातिर.
जिस दिन गिरा आखिरी पेड़, मनुष्य भी उसी दिन गुज़र गया.

Friday, August 2, 2013

बेमौत मौत और मुआवज़ा


बेमौत मौत और मुआवज़ा
दोनों खेद की बाते हैं,
मौत, गिरा जाती है पहाड़,
तस्वीर को छाती लगाए, पथरा जाते हैं आँसू,
और मुआवज़ा किसका?
कब और क्यों ?
में अटक के रह जाता है मुआवज़ा,
ऐसे में रोटी जुटाने में उठा एक भी हाथ,
तसल्ली देते हजारों दिलों से बड़ा होता है.


















सच कहता हूँ,
कलम भी पूछता है औचित्य,
अच्छा है कि मैं इस देश के गुरुओं का,
भक्त एकलव्य नहीं,
मैं कवि हूँ,
जिसका जी, लाख पथराये,  पर नम हो ही जाता है.
ईमान, आंसू में नमक मिला ही जाता है.
कि कागज़ी मुआवजे हकीकत में बदलने में घस लेती हैं चप्पलें
और कलम पूछती है बेमौत मौत और मुआवज़े के बीच का नारकीय जीवन,
कवि, अशक्त
कलम को दे नहीं पाता स्याही.
वह लाखों की तरह अपने चुनाव पर शर्मिंदा है.

Thursday, August 1, 2013

मैं- माने आज का बुरबक कल का विवेकी कहाँ रहूँगा (एक डिस्टोपिया)


इस तरह रहा तो मैं कहीं का नहीं रहूँगा, 
न इसका, न उसका, 
कोई टैंकर में मिला पिला जाता है दारू, 
कोई परिवार के जन-जन को पहुँचा जाता है पाँच हजार, 
कोई भोर, मूँह छिपाए, आकर बाँट जाता है फर्जी आईडी, असल बीपीएल कार्ड, 

मैं सोचता हूँ वह एक दिन, 
ब कुम्भकर्ण को भी कर दूंगा पानी-पानी,
न भरेगी पेट मेरी, न रेंगेगी कान पर जूँ,
कैसे करेंगे जनताजनार्दन मेरी भरपाई?
क्या वायदे होंगे?
कैसी खेली जाएगी बिसात?
क्या होंगे सवाल और कैसे पेश किये जायेंगे जवाब?
जब राम-अल्लाह की बात सुन लोग जम्हाई लेना भी समझेंगे तौहीन,
न जाति, न नस्ल, न लिंग, न भाग्य, न मोक्ष, न जिहाद, न जन्नत,
न नक्सल, न दंगल, न टीवी, न मिड डे मील,
न मिक्सर, न लैपटॉप, न खाद्य सुरक्षा बिल,
न ये न वो, हेन-तेन
कर पायेंगे मेरी क्षूधा शांत,
बताओ तो कौन से असलाह होंगे जो दागे जायेंगे?
ताकि रोक दें मेरी एक जुम्बीश भर भी.
कैसे करेंगे ये झंडाबरदार मेरा सामना?
कि ‘सब ठीक है न’? पूछ भर लेने से
क्या उनके पांवों को लग जायेगी घिग्घी?
धडकनों को मार जाएगा लकवा?
कि एक कदम चलने पर ही जवाब दे देंगी पसलियाँ
और हर एक डॉक्टर लटका देगा नो एडमिशन,
क्या महज़ देख भर लेने से पसीने-पसीने हो जायेंगे वो?
कि जूते, थूक, पिटाई-लताई की पड़ेगी न कोई ज़रुरत,
क्या होगा मेरा देश के आर्किटेक्टों का,
भय होता है, कि सियासी बिजनेस को जब लग जाएगा
आम आदमी के विवेक का दीमक.
तो दर-दर भटकने के भी नहीं रहेंगे लायक,
इस तरह रहा तो मैं कहीं का नहीं रहूँगा,
क्योंकि मुझ जैसा नकारा,
केवल बतियाने-गपियाने को बना है.
और तब के जोकरों के तर्ज पर,
कहूँगा,
कविता ख़तम, राजनेता हजम.

पर हो चुकी होगी बड़ी देर
कहाँ रहूँगा मैं भी?
तब तक गर सरजमीं होगी तो होंगे अमूमन पचास हिस्से.
कहाँ रहेगी मेरी माँ, मेरी बेटी, मेरे बिरादर,
मुल्क का कौन सा हिस्सा होगा मेरे अपनों के नाम,
इस तरह रहा तो मैं कहीं का नहीं रहूँगा.

Wednesday, July 31, 2013

कविता : तब मैं सोचूंगा..



तुम मेरा अंगूठा बन जाओ, 
मेरी ज़बान भी..
मेरी पेशानी पर पड़े बल भी ले लो उधार, 
झुर्रियों से झाँकती उम्र से कर लो एक बार साझा.. 

एक बार ओढ़ लो मेरा लबादा, 
जानो अंगूठे के छाप होने का षड्यंत्र, 
जानो जबान का गूंगा होते होते अचानक तल्ख़ होना,
सदियों से पेशानी पर अफसोस ढोते ढोते अचानक पड़ जाना उनमें बल,
झुर्रियों में उलझे उम्र से जानो भूख का सामान जुटाने की यातना,
फिलहाल तुम बस इतना करो कि बुद्ध सा त्याग दो अपना उपनाम.
एक मनुष्य सा करो मेरा सामना....
रूँध आये गले से कहो...हाँ हम तुम्हारे साथ मनुष्य सा नहीं रह पाए...
तब मैं सोचूंगा...कैसे पेश आया जाए तुम्हारे साथ...
जिनावर सा....या मनुज सा...

Tuesday, July 30, 2013

खुले दिल से गले मिलोगे ?

love-hug-eightfoldpath
Courtsey : www.inspirationonline.com

अभी कहाँ मंझा हूँ,
कितना खुरदुरा है मन,
अभी तो विभक्त होना है खुद से,
अपनी ही छाया से सीखना है होना नम्र,
कभी न ख़त्म होने वाली जद्दोजहद से सीखना है मांझना विवेक,
दूर जंगल में घाँस की बढ़ती जड़ों से सीखना है धैर्य,
रात भर बनते ओस से सीखनी है शांति,
तन्हाई से सीखना है होना साझीदार,
अधीरता से सीखना है होना ईमानदार,
मैं को जब कर आऊंगा दफन,  
और कुछ न होने से कुछ होने के बूझ लूँगा अर्थ....
तब प्रेम बोलो तुम...
खुले दिल से गले मिलोगे ? 

Friday, July 12, 2013

फॉर योर इन्फोर्मेशन : एक आदमीनुमा आदमी का टाईम-टेबल

एक आदमीनुमा आदमी,
एक वलय को रोज़ करता है पूरा.

तड़के-सवेरे के काज निपट,
एक-दस मिनट के लिए,
चाय की चुस्कियों और अखबार की हस्तियों में रहता है मशगुल,
एक-दस मिनट बाद,
एक-दस साल पुरानी घड़ी पर फेरता है नज़र,
घुटने पकड़ उठता है,
बच्चों के न उठने पर बिगड़ता है,
और बीबी से पूछता है, लिस्ट,
लिस्ट के इर्द-गिर्द उसने रच लिया है अपने जीवन का भूगोल.

लिस्ट ले, पड़ोसियों को दुआ-सलाम करते निकल पड़ता है, मंडी,
मंडी में ढूँढता है सबसे सस्ती सब्जियाँ,
वापस लौटते बच्चों के लिए खरीदे लाता है,
दस रूपये में दस लिखो-फेंको पेन.

कुल जमा दस मिनट,
अपने इष्ट ग्रुप के सामने घुमाता है बत्ती,
फिर अपने सबसे फेवरेट गुरू के फोटो के चरण छू,
लेता है देवता घर से एग्जिट,
कपड़े बदलते हुए, नाखुनो को रगड़ता है लगातार,
फिर माँ के चरण छू, बलाएँ ले,
बीबी से हिदायतें, घर की चिंताएँ ले,
निकलता है ऑफिस,
रस्ते में, सारे मंदिरों पर, बस में से ही झुकाता है शीष,
एक-तीन बार चूमता है हाथ,
फिर हाथ से चूमता है माथा.

ऑफिस में नियत ढंग से करता है चिक्कन-चिक्कन बात,
नियत समय पर खाता है टिफिन,
टिफिन दौरान, आदतन, उंडेलता है गुबार,
बड़ा होता, हाथ से छूट रहा है लड़का,
बड़ी होती, नफीस-ज़हीन हो रही है लड़की,
जेब, लिंग निर्धारण में कन्फ्यूजिया गई है,
किसे आगे बढ़ाया(पढ़ाया) जाए, किसे नहीं.
फिलहाल, लड़की को डॉक्टरी न करने देने के लिए सोच रहा है सौ बहाने.

वापसी में पूरी करता है एक और लिस्ट,
आदतन, पाई-पाई का हिसाब रखनेवाला आदमीनुमा आदमी,
पकड़ लेता है ग्यारह नंबर,
उबाऊ नज़र से, डीकोडिफाई करते चलता है,
अपने जैसे यंत्रवत आते-जाते लोगों के उबाऊ-अपढ़ चेहरे,

बीच में लकदक करती मॉलों से होती हैं भेंट,
ठिठक, अपलक....
ख़ुशी और मुस्कानों के समझ लेना चाहता है गणित,
एक कुम्लाही कसक कि वह भी हो सके शरीक, फिर कुम्लहा जाती है,
अपने विजडम से मानता है, कि गलत है पोसना कोई भी सपना,
कि ठोंगे भर तनख्वाह में,
खरीद नहीं सकता वह, खुशी का थोड़ा भी भूजा.
तदन्तर शरीक-ए-हयात के आइडिया को करता है बर्खास्त,

अपने सधे क़दमों से, बचते-बचाते, पहुँचता है घर,
जूते उतार, धोता है हाथ-पैर,
वापस सिंगल पिस आने के लिए, बत्ती दिखा, अपने ईष्ट का होता है शुक्रगुजार,
मेज़ पर करती है चाय इंतज़ार,
एक-दस मिनट, टीवी पर बांचता है अखबार,
बच्चों से करता है थोड़ा बहुत बात-व्यवहार,
और अंत में,
बीबी को सारी रपट दे, शायद नींद में निकालता है सारे गुबार.

इस तरह पूरा करता है एक घेरा,
एक आदमीनुमा आदमी.
___________________________________अनुज_______________
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Wednesday, July 10, 2013

कविता : हमारे सपने तुम्हारे स्वप्न नहीं हैं



मानु* का खोल पहनाकर, अभयारण्य* के नाम सौंपकर,
हम रहेंगे चैन से, सपना मीठा दिखाते रहे,
हमने आँखे मूँद ली, देख कर रौशन मीनारें,
और तुम्हारे फेंके बोतलों में, दिवाली यूँ मनाते रहे,
याद रखो ऐ सुखनवर, धरती को पाला है हमने,
तुम हमारी धरती पर, अपना आराम, उगाते रहे,
हमने न पूछा था तुमसे, क्या है हमारा पता,
तुम पते को बंजर बता, अक्सर हमें धकियाते रहे,
बरगद सा दिल नहीं है, न बड़ा पैमाना हमारा,
कि फौजियों की बूट को, सर-आँखों पर सजाते रहे
धूल में खो जायेंगे हम, खाक-राख हो जायेंगे,
तुम्हें भी गर्त कर छोड़ेंगे, गर यूँ अपना कह सताते रहे.
झंझावात है हम, शंख में बैठा नीरव उद्घोष हैं,
तुम नियामक न बनो, हम अपने नियम बनाते रहे.
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मानू – असमिया में इंसान के लिए
अभयारण्य – अंडमान में एक अभयारण्य है, नाम है जरावा आदिवासी अभयारण्य. इस अभयारण्य में जरावा आदिवासी रहते हैं. पर्यटक अक्सर उन्हें लुप्तप्रायः प्राणियों की तरह देखने जाते हैं.

Tuesday, May 21, 2013

कविता : क्या वक्त बदला है?

 वक़्त तू बड़ा बेरहम निकला,
ऐसा कुछ भी तो नहीं किया तूने,
कि गफलत में रहूँ कि तू बेमुरव्वत नहीं,
तूने असमय उगा दीं मेरी छातियाँ,
और कर दिया हवाले, कपड़ो की लुगदियों के.
तूने हड़बड़ी दिखाई,
... खेलने न दिया गुड्डे-गुड्डी का खेल,
सामने कर दिया एक सांस लेता गुड्डा,
जो साँसों की नमी से मरहूम था. 




साभार : गूगल चित्र


ससे पहले कि मैं सीख पाती बाल-गूंथना,
तूने मुझे,
खूबसूरत होने का इलज़ाम लगा,
कर दिया मेरे वालिद के भय के हवाले,
कि जिसने पगड़ी उतरने के भय से,
नथ उतराई को कर दिया किसी और के हवाले.

यूँ, मूँह न फेर ऐ वक्त, सुन !
इससे पहले कि मैं आँक पाती अपनी ख्वाहिशें,
कोई मेरे माँस के वज़न पर फाँक गया मेरा बचपन.
मेरे उपजाऊ होने से पहले धर दिया बीज,
और मान लिया, एक कुशल मालिन,
पर हिरन की आँखों की तरह धँसे रह गए कुछ अबोध सवाल,
सवाल, जिसकी कूंजी गुमा दी, बापू ने, ससुर ने, पति ने और समाज ने.
कि जब खेलने-कूदने के दिन थे मेरे, तब मन बहलाने के लिए,
जबरन जनना पड़ा मुझे अपने जैसा ही एक और बच्चा.

वक्त, बहुत वक्त बीत चूका.....
अब हम आमने-सामने हैं...बता मुझे...
ज़िन्दगी पर हाथ आजमाने से पहले...
तूने क्यों थमाई हाथों में दर्द की पोटली ?
क्यों एक को बिस्तर खराब करने के सारे मौके दिए?
उसे सुलझाया, कच्छे से फुल पैन्ट बनाया, रूमानी किस्से दिए.
और मुझे कस पकड़ साड़ी पहना दी, धीरे-धीरे जिबह किया, बेवक्त सदमे दिए?
कानों में फुसफुसाते रहे- शुक्र करो! तुमने दुनिया तो देखी !

वक्त तुम्हारा निर्दयी चेहरा यूँ शर्म से तार-तार क्यूं है?
वक्त! क्या वाकई वक्त बदला है?

Thursday, April 25, 2013

[कविता : सुनो जी !]



सुनो जी,
कहे देती हूँ तुमसे,
मेरा ताल तुम्हारे ताल से नहीं मेल खाता,
न ही तुम्हारे धून पर टिका हुआ है मेरा संगीत,
तुम्हारी भव्यता से भले ही पड़ जाए मद्धम मेरी आवाज़,
पर मैं बेसुरी नहीं.




तुम सौ दफा, सौ दलीले दे,
खुद को कर सकते हैं साबित बिलकुल साबुत,
पर भावों से उफनते कविता में,
फूलों से भरे शाख की बात न कभी आई है, न आएगी.  

नहीं सुननी-समझनी मुझे तुम्हारी कवितायेँ,
मुझे तो बस टमाटर की खटमिठी चखनी है,
जिसमें अब भी बुझे चूल्हे की ताप होगी,
जो गाढ़ी होते होते और चटखारी होगी,
मैं पूछती हूँ, तुम्हे खटमिठी पता है?  
माफ करना मुझे तुम्हारी कविता नहीं पता !

क्यों इतना गुस्सा?
जब कहूँ.....
आज खिडकी से ताकती रहूंगी,
बच्चों को स्कूल से लिवा लाना,
बर्तन बासन सरिया देना.

क्यों इतना मूँह बाना, जब कहूँ....
कि मैं निमित्त मात्र थी,
एक भी ऐसा फ्रेम नहीं जिसमें फिट बैठती,
न रंग, न गुण, न समाज के उठ-बैठ का सलीका, प्रेम तो बिलकुल नहीं,  
कि मैं न थी, परिवार था, परिवार का पैसा था.

क्यूं इतनी त्योरियाँ चढ़ाना ? जब कहूँ...
क्या-क्या हुई हूँ मैं,
तुम्हारे हवस का बिस्तर हुई हूँ,
तुम्हारे गुस्से के लिए जुटाया पीठ हुई हूँ,
वक्त-वेवक्त झाड़ू से जख्म बुहारे हैं मैंने,
तारे बुहारे, पेड़ बुहारे, जंगल-पत्थर सब बुहारे,
यूं डब्बे में इकठ्ठा कर, दिमाग के कोनों में कब से फ़ेंकती आ रही हूँ मैं.


क्यूं आँखें छोटी हुईं, जब कहा...
कि अब तक आपकी कविताएँ ही सुनती आ रही हूँ,
मेरा देखा, समझा, सुना सब आपका ही,
मेरा क्या? मेरे अनुभव क्या?
सब तो लिखा किया आपका ही !

सुनो जी,
यह बूझ लो,
मुझमें भी ब्रज बसा है, वृन्दावन भी,
मुझ भी खींचती हैं बंसुरिया,
तुम्हारे छह फीट के डील-डौल से परे भी बस्ती है दुनिया.
तभी कहती हूँ....अब मैं करवा-चौथ का तीज नहीं,
न ही मेरे गर्व का सबब है घर की चौकी-चाकरी,
मेरी ईमानदारी, मेरा विश्वास ही मेरी रीढ़ है, मेरा गर्व है.
जो कहती है तुमसे,
तुम्हारे लिए अपने समूचे प्रेम के बावजूद,
छोड़ सकती हूँ सब कुछ.
दो जून ख़ुशी खातिर.
क्योंकि तुम जैसा ही एक अदद इंसानी दिल,
इस सीने का भी हिस्सा है.

Tuesday, April 23, 2013

[कविता : धरती उनकी भी है]


जिनके सर पर छत हो,
उनके लिए धरती घर होती है,
जिनके हाथ में रोटी हो,
उनके लिए धरती शहद का छत्ता होती है,
जिनके देह पर शॉल हो,
उनके लिए धरती गर्म होती है,
जिनके बगल में माशूक हो,
उनके लिए धरती रूमानी होती है,
जिनके हाथ में प्याला हो,
उनके लिए धरती सपना होती है, 

















धरती के लाखों रंग उनके भी होते हैं,
जिनके सर शम्बूक के हैं,
हाथ एकलव्य के और दिल कबीर का,
जो बिरसा हैं, जाबली सत्यकाम हैं,
जो मनुष्य से हैं, मनुष्य नहीं,
जिनके ज़मीं का हिस्सा किसी का बकाया है,
जिनने अपने आकाश, चाँद सूरज खातिर बहुत चुकाया है,
जिनके बगल में कोई नहीं,
केवल ये हैं, इनके मवेशी, इनका घर.
जिनकी कोई मांग नहीं,  केवल जबरन माँगा है,
जिन्होंने अपना बचपन धरती को जन्नत मानने में गुज़ारा है
और अपनी जवानी आकाश तक चीखें,
और धरती के गर्भ में अपनी आहें पहुंचाने में गुजारी है,  
जो आज भी दो बांह धरती के मोह में  
सदियों से दधिची की हड्डिया ढूँढ रहे थे. ढूँढ रहे हैं.

Wednesday, April 17, 2013

-----------{कविता : कविता मुमताज सलीम की}------------


(इस कविता में कविता कम किस्स्गोई अधिक है, जैसे अफसाना लैला-मजनू की वैसे ही कविता मुमताज सलीम की)
                                                                                               
बच्चियों के अलीफ बे ते से के लिए,
बाल पकाने के बाद,
मुमताज़ ने एक आखिरी बार, 
सलीम से ताज देखने की बात कही,
सलीम ने उगलदान में पान थूका और अपनी जेब थपथपा दी.

शोखी के दिनों के बहुत दिनों बाद,
मुमताज़ ने सलीम का हाथ हाथों में लेते हुए कहा-
सलीम कुछ पूछती हूँ तुमसे !
जैसे गुजरा है हमारे साथ
वैसा क्या कुछ गुजरेगा बच्चों के साथ?
उनकी लम्बी उम्र की दुआ के बावजूद,
क्या उन्हें भी हमारी तरह,
कुछ-कुछ अधूरा-अधूरा ही लगेगा ?
कुछ-कुछ छूटा-छूटा सा...
कुछ-कुछ जैसे पूरा होना हो बाक़ी...
सलीम क्या यह मायने रखता है
कितनी दूर तलक वे जाएंगे ?
या की यह कि उनके बच्चे भी...
खुद को छूटा-छूटा सा ही पायेंगे ?
क्या, अधूरी ख्वाहिशों का गट्ठर है यह जीवन सलीम?
मुमताज कहती रही...
ओ मेरे हमनवा...मैं अब समझ पाई हूँ...
हम सभी बच्चे रह जाते हैं...
कुछ न कुछ सपनों का जूठा रह ही जाता है.
मुमताज कहती रही...
गोया तुम शिकायत से गुरेज़ खाना,
अधूरे जीवन से तो कतई नहीं,
कहते-कहते मुमताज ने बंद कर लीं आँखें...
सुनते-सुनते सलीम और सुनने की हसरत में बदहवास हो चला....
मुमताज़, सलीम से, दुनिया-जहान से रहे-सहे गिले-शिकवे कर मिटटी हो चली....
सलीम हौले हौले साँसों की गिनती भूल चला,
सारी कायनात सर्द, सख्त और संगदिल हो चली,
भरोसे, इन्सानपरस्ती को तन्हाई और मुफलिसी के जाले लग चले, 
यूँ अपनी हज़ार कोशिशों के बावजूद मुकर चला सलीम,
इजहार-ए-इश्क का मारा सलीम...... रगों में मुमताज़ को लिए
रोज़ छत पर बैठे-बैठे बौराता फिरता रहा
इस तरह एक दिन विश्वास के फेरिहस्त से खुदा, मुमताज़ और खुद को वह तखलिया कह चला,
जिसे आने की इजाजत मिली...
वहाँ आज उसकी तीन बेटियाँ फूल चढ़ाती हैं.
________________________   - अनुज -   ____________________________
 

Tuesday, April 9, 2013

--- कविता : “कुछ” और “कुछ’ ----


हरखू “कुछ” है,
शुक्र है “कुछ नहीं” नहीं
दरअसल यह “कुछ नहीं” नहीं,
होना अक्सर,,
बजट में अचानक उसका हो जाना होता है.






बंसल साहब,
भी कुछ हैं,
... कागजों में सेंत रखते हैं अपना भविष्य
ईंटा-बालू के लिए पाई-पाई जोड़ते हैं वर्तमान,
और कुछ की ख्वाहिश में,
घटा रहे हैं चेहरे का नमक
.





सुना है इस बरिस लेमनचूस पकड़ाई है सरकार, 
 २००० छूट दिए रहे,
और ऐंठी है, जो किये बहुत किये
सुना है,
करोड़ पर एक्के बार लगेगा टैक्स,
और इस “कुछ” के चक्कर में
सरकार अपना “सबकुछ” बचाए खातिर
“कुछ-कुछ” से शुरू कर, “सबकुछ” करने को तैयार रहती है.
इस तरह “कुछ” और “कुछ” का खेला चलते रहता है.
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