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Friday, November 23, 2012

एक गाँव : दो चित्र


 एक

जैसे हटा हो कोई पर्दा, 
वैसे छँट चुका है कोहरा,
आँखों के विस्तार की सीमा तक,
पसरी है हरियाली
आँखे भर लेना चाहती हैं हरियाली
साँसे भर लेना चाहतें हैं हरापन

ओस से लदे खेत,
सुबह की रौशनी में सन कर,
हीरे हुए जा रहे हैं.

आम के गाछ इधर 
ताड़ के पेड़ उधर
कर रहे तैयार एक मनोरम कैनवास. 

 


दो 

कैनवास में हैं वे भी शामिल,
जो मेरी मस्तिष्क के व्यर्थ विस्तार से अजान,
मफलर का मुरैठा बाँधे,
आग तापते, चुस्कियाँ लेते,
आँख मिलने पर मुस्की छोड़ते
शहर की कलाई मरोड़ते
कर रहे बतकही का  प्रचार-प्रसार
कि उनके लिए तो  धरी पड़ी है,
सारी सुंदरता, सारे विचार, सारा विस्तार.  

Thursday, November 22, 2012

मेरा राष्ट्र



कल झाडियों के पीछे-
एक जानवर को सड़ते हुए देखा
बीमार था, इसलिए..
कसाई ने कोई फायदा न बनता देख
लवारिस छोड़ दिया
पहले से ही बहुत फायदे उठा लिए गए,
उसे निचोड़ कर, काम करवाकर ।

उसकी देह से तीखी सड़ांध आ रही थी...
जिससे उसके गत भोग और अच्छे दिनों की..
बू आ रही थी ।
ऐसे-
कितने छोटे-छोटे जानवर रोज़ सड़ रहे हैं,
वैसे यह भी सड़ कर खोखला रह जायेगा..
एक दिन..
अपने अस्थिपंजर के साथ ।












 

Thursday, November 8, 2012

कृतज्ञ हूँ


जब भी पोंछता हूँ यादों का आईना,
तुम चुपचाप बात करती दिखती हो,
दिखती-
आत्म-निसृत तुम्हारी सुंदर मौन मुस्कान.

जेहन से गुज़रती हो तुम..
जंगल के उस रास्ते की तरह...
जो किसी समय में साफ-साफ दिखता था,
अब तलाशना पड़ता है-
क्योंकि तुम्हारी आवाजाही नहीं होती,
बस याद रह जाता है,
एक रास्ता था कभी,
बहुत दूर एक मंजिल पर जाता था...
मैं-तुम उसे प्रेम मान चुके थे.
दरअसल,
हम एक ही ठिकाने के दो अलग बाशिंदे थे.
एक ही कहानी की दो अलग किताबें .
फेर बस इतना कि,
मैं गलतियों पर पला-बढ़ा,
और तुम सुंदर गम्भीर बनी ही थी.

मैं, अब! शांत, स्थिर चित्त.
तुम्हें याद कर, प्रेम के सही अर्थ बूझते चलता हूँ..
हर बार हृदय कृतज्ञता से भर आता है.
 

Tuesday, November 6, 2012

गट्टू बहा जा रहा है


सर्व शिक्षा अभियान"
"एजुकेशन गारंटीड "
के इश्तिहारों से,
दस कदम दूर,
एक बच्चे ने सटा रखीं हैं आँखें,
अखबार के उस टुकडे पर,
जिसमें गट्टू पतंग उड़ा रहा है.
वह गट्टू होना चाहता है,
एक पेशेवर पतंगकाट.

कि तभी चूतड़ पर लात पड़ती है,
भैनचोद काम कर,
गिलासें तेरा बाप धोएगा.

बच्चा गिलास धो रहा है
देख रहा है,
अखबार को बहते हुए
गट्टू धीरे-धीरे
मोरी में बहा जा रहा है.

(गट्टू एक बाल फ़िल्म है, जिसके नायक गट्टू की दो ही ख्वाहिशें हैं, एक स्कूल जाना और दूसरा पतंगबाज़ बनना)

Monday, November 5, 2012

कोई हर्ज़ नहीं

Courtsey : Google Images
जब आँखों को रंगों का ज़ायका न भाये,..
और जीभ पर स्वादों का धमाका सुनाई न दे,..
जब कानों को गीला करने के लिए संगीत न बचे,..
और मुंह में मीठी बातों की खुश्बू न हो,..
जब तारे, ज़मीन, आसमाँ, चाशनी सी मीठी हवा सभी...
जिस्म में गुदगुदी न भर दें,..
और रोमांच शब्द खुरच दिया गया हो,..
जबरन जीवन से,..
तो जिंदगी पर नयी जिल्द चढ़ा लेने में कोई हर्ज़ नहीं.

Friday, November 2, 2012

इस कठिन समय में

इस कठिन समय में,
कुछ भी शाश्वत-सनातन नहीं
जैसे मेरा तुम्हारा प्रेम,
दुआओं में उठे हाथ,
माँ का कवचमयी आँचल,
Courtsey-Google Images
आँखों में ठहरा दुःख,
आशा के टिमटिमाते जुगनू,
जेबों से भागती खुशियाँ,
लबों पर जमा उथला नमक,
सीलन लगे रिश्ते,
पूँजी के भव्य महल,
गुदाज-गुदाज खुशियाँ,
नथुने फैलाई समृद्धि,
आँखें सकुचाई गरीबी,
कुछ भी शाश्वत-सनातन नहीं,
हाँ, इस कठिन समय में,
कुछ भी हो सकता है,
उलट-पलट, अदला-बदली, हेरा-फेरी,
और आप सदमें का शिकार हो,
निभा सकते हैं,
सुख या दुःख का किरदार.

Thursday, November 1, 2012

यह जो तुम्हारा ही है


तुमसे आँखें मिलती हैं
मेरा गला सूखने लगता है
हर बार खखारता हूँ गला
आँखे नीची कर कन्नी काट लेता हूँ
काट लेना चाहता हूँ
सवाल, सवाल और सवाल
झांकते है आँखों से
छटपटाते-खोजते-तलाशते जवाब
मेरे कहकहों में खनकता उल्लास
तुम्हारे पसीने का गिरवी है 
तुम्हारी नींव पर खड़ा मैं अल-बुर्ज

कतराता हूँ-बचता हूँ,
देखने से नीचे,
नीचे जो दिखती है गन्दगी,
उसी का कर्ज है,
कि मेरे आस पास बिछा है सुंदर,
तुम्हारी खटनी बुनती है मेरा आराम.
कौन भरेगा तुम्हारी आत्माओं का घाव?
कौन धोएगा तुम्हारे गंदे हाथ?
कैसे भरा जायेगा तुम्हारा क़र्ज़?
कब तक कन्नी काटेंगे हम?
यूँ सदियों से नकारते जाना एक उधार है
और
हर क़र्ज़ ब्याज पर टिका है.
अब जो करेंगे आनाकानी
तो तुम उठोगे
लीबिया से ,सीरिया से,
इराक से ,पेरू से ,
वोलिविया से,मिश्र से
और फैला दोगे गन्दगी चारो तरफ
भलाई इसी मैं मैं बाँट लूँ थोडा-कुछ सुन्दर
जो तुमने ही बनाया है,तुम्हारा ही है.

हरे-भरे पहाड़

Courtsey : Google Images
एक पहाड़ देखा,
पीछे से फिर पहाड़ देखा,
देखा,
ट्रकें रेंग रही थीं,
धीरे-धीरे ले जा रही थीं..
पूरे का पूरा पहाड़.



मैंने अपना घर ढूँढा,
पहाड़ों को चुराने वाले...        
घर भी चुरा ले गए.
ऐसे कई घर...

गायब हो चुके हैं...
पहाड़ों के मानचित्र से...
मेरी माँ की छाती काट, वर्षों से तुम..
पिलाते रहे हो, अपने घरों में दूध .
तुम्हें लगे 60 साल ..मेरी पहल में..
और महज़ दो मिनट,
टाटा और अम्बानी की टहल में.
सच है-
तस्करी को विकास की चोली पहना
जब पेश करते हो तुम.
तो सब हरा-हरा दिखना ज़रूरी होता है.

नुस्खा तैयार किया है





 बस में, मेट्रो में, ऑटो में
दीख जाएगा, कोई न कोई,
हीनता का मारा,
अपनी कमियों को छुपाने में
 कारगुजार.

 महंगे से महंगे कपडे, अत्तर, जूते
और क्या-क्या...

  जिसके पास नहीं,
वह मुंह बाये खड़ा,
जिसके पास है,
वह उससे महंगे को देखता.

 होंठो पर जमी चमक,
दिली मुस्कान की गारंटी नहीं,
न ही मेक-अप घटा सकते है
झुर्रियों से झांकते तनाव
 
घास न उधर हरी है, न इधर,
चमक के पीछे,
अथक संघर्ष, घिनौने शोषण की कहानिया हैं
 
 पर, मैं-तुम नशा किये हुए हैं...
 हीनता, एक सनकी खुशी का नाम है
 मेरा-तुम्हारा हीन होना एक जाल है
जाल, जिससे निकलना गंवारा नहीं.
 बचने का चिराग हो, तब भी, ख्वाहिश नहीं.
 
मैं-तुम इस जाल को कुतर नहीं सकते,
इसे तो कुतर सकता है एक रद्दी वाला
चायवाला या रिक्शेवाला
हीराबाई या हिरामन,
कोई तन्नी गुरु या अस्सी का कोई टंच फटीचर,
या ऐसे बहुत, जिन्होंने,
खुश रहने का नुस्खा खुद तैयार किया है.

 

Wednesday, October 31, 2012

सफलता का गर्व


स्मृति का सहारा ले,
देख रही हूँ मैं,
जिंदगी के उस हिस्से को
जिसमें ताज़ी सांसों के एवज़ में
सुबह-सुबह लोग
अपने घोंसलों से निकला करते थे
और मैं-
किया करती थी साफ
शहर-भर का चेहरा
इतना खौफ, इतना भय भर गया था
कि सुहाग रात के दिन
घंटों खुद को सूंघती रही
मेरी पोती का आइसक्रीम के लिए झूठमूठ रोना
मुझे ले आता है आज में,
मैं लेती हूँ अपने पति का,
झुर्रियों भरा हाथ,
खुश्क मजदूर के हाथ,
हमेशा स्नेह से नम रहे,
लुढकते आंसुओं को पोंछते हुए,
दूर देखती हूँ अपनी बेटी का मुस्कराता चेहरा
उसके कंधे पर स्टेथेस्कोप है,
और मेरी छाती में कूट-कूट कर समाहित है,
एक अधेड़ दंपत्ति की सफलता का गर्व.

क्यूँ न लिखूँ मैं?

क्यूँ न लिखूँ मैं,
जब मेरे सहचर- साथी
चुप हैं,
या लिख रहे हैं,
अ से अनार,
क से कमल,
क्यों कतरा रहे हैं,
लिखने से,
ब से बीमार, बेकार,
तौबा! तौबा! मेरी सरकार!
मैं बार-बार लिखूंगा,
एक लड़का शिक्षा से वंचित है,
पाल रहा पांच पेट,
मिठाई की वर्क बनाते-बनाते
उसने किये हैं प्रहार अपने ही संवेदना पर
यातना की मारी एक जवान लड़की
भरती जा रही कुम्भकर्णी ससुराल का मुंह
और दहेज़ की मियाद बढती जा रही
18 घंटे काम करने पर भी खाता है
एक गरीब आदमी
मालिक की फटकार
मानों उसका होना, होना है ही नहीं
मर रहीं हैं आवारा आत्माएं
सड़कों पर,
ठण्ड से, बलात्कार से.
कभी- कभी मोटर-कार से
घोटालों को अपनी माँ बनाकर
फल फूल रहें हैं कुछ दिग्गज
और सरकार खुद को रखैल बनाये रखने में
कोई कसर नहीं छोड़ रही,
मैं सब लिखूंगा.
गरीबी, भूख, अशिक्षा,
स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी,
लैंगिक भेदभाव,
बाल श्रम, बाल विवाह,
घरेलू हिंसा
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का दमन
मानव तस्करी, क्षेत्रीय हिंसा
ये सब मानव अधिकार की बातें हैं
ये बातें रहें तो ही अच्छा है
तुम एक पहल करो,
और पागल करार हो जाओ,
न न !
हमें हमारे खेमे में ही रहने दो.
हम राजी-खुशी जी लेंगे.
सच है,
कोटर की छेद से देखने से,
चीजें अच्छी-अच्छी ही लगती हैं!
हाँ,
पर नहीं
यह जानते-बुझते कि..
मेरे देश की तरह ही,
अफगानिस्तान, पाकिस्तान,
लीबिया, सीरिया,
इराक, पेरू,
अफ्रीका, मिश्र आदि आदि..
तबाह हो रहे हैं अन्दर-अन्दर ही...
घस गई हैं,
मानवीय गरिमा से जुड़ी बातें,
यत्र-तत्र-सर्वत्र,
पर हैं,
और मैं लिखूंगा,
कि कचोटती हैं,
अन्दरभीतर, बातें,
एक अदद इंसान को.
सच है-
जो इन दर्दनाक स्थितियों से गुजरा है
जिसने जिया है भोगा है तिल-तिल रोज़-रोज़
वह मैं नहीं, तुम नहीं,
वरना....

पराया घर?


चार रातों से,
रात-रात भर रोती रही.
किस ने उफ्फ तक न की,
न ही टोही हाल-चाल .
भरा-पूरा परिवार...
और मैं रोती रही,
दर्द घर का घर कर गया.
क्या यही हैं, जिन्होंने गुल को सींचा ?
क्या यही हैं, जिन्होंने बाहों में भींचा ?
कल तक मैं सबकुछ,
कल्पना, मेधा, बेदी सब,
आज उनकी मायूसी का सबब.
कुल जमा चार दिन हुए मुझे ससुराल छोड़े हुए.

हम अपना भ्रम पालना नहीं छोड़ते


 
कपड़ों की लुगदी में फंसे,
उस क्षीणकाय को देख भ्रम हुआ,
वह भंगियाया हुआ है,
नशाखोर, धरती का बोझ.
पर ऐसा था नहीं,
दरअसल,
तालू से चिपक गई थी जबान,
भूख ने गड़मड़ा दिया था...
चेतन-अवचेतन का गणित.
भूख एक धीमी आँच..
जो छोटी-छोटी चिंगारियों में...
सोखती चलती है साँसें..
यहाँ-तहाँ छिद जाता है शरीर,
और जब जुड़ते हैं सारे छेद...
एक नीरव विस्फोट होता है..
और..
सबसे बदतर होती है शुरुआत,
शरीर बार-बार कुलांचे भरता है..
विद्रोह में..
और दिमाग आशा की बैसाखी लिए
भय को जिन्दा रखता है.
धीरे-धीरे..
आशा की भी टूट जाती है बैसाखी,
भय तब्दील होने लगता है ..

Courtsey : Google Images
एक अंतहीन थकन में..
आदमी सुन्न हो जाता है..
जिए और मरे का, फर्क भरमा जाता है.
ऐसे में जब दीखते हैं..
भूख के सताए..
तो मूंह ढांपे गुज़र जाती हैं औरतें,
बच्चे पत्थरों से,
और मर्द गालियों से, लातों से,
नवाज़ना नहीं भूलते.
भूख की आँच करती रहती हैं विस्फोट,
निजात पाने के एवज में
मृत्यु-आलिंगन को रोता है आदमी.
और,
हम अपना भ्रम पालना नहीं छोड़ते.

प्रेम "अजब-गजब"


प्रेम किया,
अजब किया,
सड़कों, गलियों, चौराहों...
हाथ पकडे-चूमते...
इश्क का इज़हार किया.
स्पर्श किया, संसर्ग किया,
गर्भ दिया, गर्भपात किया.
रोये-धोये, चीखे-चिल्लाये,
फिर शुरू वही कारोबार किया,
खुद को, शर्मसार- लाचार किया.
झूठा व्यवहार किया,
अपना जिया, अपना किया,
मतलब का रोज़गार किया.
प्रेम किया
गजब किया.