दोनों खेद की बाते
हैं,
मौत, गिरा जाती है
पहाड़, तस्वीर को छाती लगाए, पथरा जाते हैं आँसू,
और मुआवज़ा किसका?
कब और क्यों ?
में अटक के रह जाता है मुआवज़ा,
ऐसे में रोटी जुटाने में उठा एक भी हाथ,
तसल्ली देते हजारों दिलों से बड़ा होता है.
कलम भी पूछता है औचित्य,
अच्छा है कि मैं इस देश के गुरुओं का,
भक्त एकलव्य नहीं,
मैं कवि हूँ,
जिसका जी, लाख पथराये, पर नम हो ही जाता है.
ईमान, आंसू में नमक मिला ही जाता है.
कि कागज़ी मुआवजे हकीकत में बदलने में घस लेती हैं चप्पलें
और कलम पूछती है बेमौत मौत और मुआवज़े के बीच का नारकीय जीवन,
कवि, अशक्त
कलम को दे नहीं पाता स्याही.
वह लाखों की तरह अपने चुनाव पर शर्मिंदा है.
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