Search This Blog

Sunday, February 24, 2013

कविता : उपेक्षित


उसकी आँखों में वर्फ जमा है,
जो झपकती नहीं पलकें..
कि इतने में तो...
बच्चियाँ औरत हो जाती हैं..
माएँ विधवा,
और गाँवों से नाम गुम...
 
उसका चेहरा सख्त है,
और उम्र का तकाज़ा मुश्किल,
उसके चेहरे पर,
हमउम्रों के नाम गुदे हैं,
 वह पढने को जाता है दिल्ली,
दिल्ली उसे पढ़ नहीं पाती,
गगनचुम्बी इमारतों से
उसे अपनी पहाड़ियाँ बड़ी होती नहीं दिखती,
 
घाटियाँ गहरी और संकरी होती दिखती हैं,
 
जहाँ कंकाल बन जाने को दफन कर दी गई
सैंकड़ों बुलंद आवाजें.
 





खौफ बन रगों में खून बहता है बदस्तूर,
जहाँ गैरमुल्क की निगाहों से देखते हैं,
मुल्क के बाशिंदे,
वहाँ मुल्क से वफाई का उलझन ताउम्र कायम रहता है.
वह सख्त चेहरा जब उठा लेता है हथियार,
तो मासूमों को बरगलाने का बहाना दे
पड़ोसी मूल्क की तरफ हो जाती है उंगली.
 
दो मजहबों, दो सीमाओं, दो सोच में बंट जाता है चेहरा,
जिसकी शिनाख्त से कतराते हैं ज़िम्मेदार,
कि जैसे बनाई जाती है औरत
वैसे ही तैयार किये जाते हैं सख्त चेहरे.
जो तालीम को जाते हैं दिल्ली.
और दिल्ली अपनी धुनी रमाये रहती है.

Friday, February 22, 2013

यह हिंदी तर्जुमान एक तुच्छ कोशिश है


कैशोर्य और लदी हुई
प्रसिद्धि, सौंदर्य से उन्मत्त,
अपने रूप और उसकी निष्कलुष्ता के साथ
मैं अन्य महिलाओं को तुच्छ देखती हूँ.

यौवन से भारी, मैं झुकती हूँ
वेश्यालय के दरवाजे पर,
एक शिकारी की तरह, अपने आभूषणों का करती हूँ प्रदर्शन,
मैं अपनी निगाहें आश्चर्यचकित  मूर्खों पर दागती हूँ.

अपने कपड़े फिसलाकर
गुप्तांगों को उघाड़ते हुए
मैंने उन्हें एक-दो चाल भी सिखाये,
क्या कहूँ! कैसे मैं उनको धोखा देती हूँ,

आज, सिर मुंडा,
एकल वस्त्र में लिपटी मैं दानी औरत,
यायावारी करती हूँ, या विचार शून्य हो
बैठती हो किसी वृक्ष के शीर्ष पर.

स्वर्ग और पृथ्वी से जुड़े मोह को
हमेशा के लिए काट दिया है.
हर उत्तेजन को जड़ से उखाड़,
आग में तिरोहित कर दिया है.

विमला द्वारा वृद्धा सन्यासिन के गीतों से "एक पूर्व वेश्या के गीत". कहा जाता है कि बुद्ध के जीवनकाल के दौरान इसका संयोजन हुआ. 



Young and overbearing—
drunk with fame, beauty,
with my figure, its flawless appearance—
I despised other women.
Heavily made-up, I leaned
against the brothel door
and flashed my wares. Like a hunter,
I laid my snares to surprise fools.
I even taught them a trick or two
as I slipped my clothes off
and bared my secret places.
O how I despised them!
Today, head shaved, wrapped
in a single robe, an almswoman,
I move about, or sit at the foot
of a tree, empty of all thoughts.
All ties to heaven and earth
I have cut loose forever.
Uprooting every obsession,
I have put out the fires.
"Song of a Former Courtesan" by Vimala, from the Songs of the Elder Nuns [Therigatha, 6th c. BCE] said to have been composed during the lifetime of the



 

Monday, February 18, 2013

मैं नहीं दे सकती उनका साथ



तीनों मेरी बगल में बैठते हैं,
कभी यह तो कभी वह,
पर रोज़ बैठते हैं,
कभी कोशिश करते हैं,
कभी बेशर्मी से जमा देते हैं तशरीफ,
जैसे कोई तार जुड़ा है अभेदी...
तीनों के बीच...

 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 हजार कोशिशों के बावजूद,
जब मेरे जिस्म के किसी हिस्स्से का...
नहीं पाते स्पर्श,
तो अपनी निरी बुद्धि पर...
उन्हें सुखद आश्चर्य होता है,
चेहरे पर मन की गालियाँ लिखी होती हैं,
भावों में घृणा और तिरस्कार मिली होती है..

 कि मेरा जस का तस घर वापस आ जाना,
एक फतेह से कम नहीं होता.

 आप इन्हें
कैशोर्य, प्रौढ़ और वृद्ध कह सकते हैं...
तीनों मेरी मंजूरी के बगैर
मुझसे गुज़रना चाहते हैं-
एक मुकम्मल होने के लिए...
एक स्वयं को मांझने के लिए...
और आखिर अपने पछतावे को घुलाने के लिए.
 

 मेरी लाख कोशिशों के बावजूद-
मैं नहीं दे सकती उनका साथ,
क्योंकि जिनका गला खखार से भरा होगा   
वे, यही तीन होंगे.

कोई पूछता !

चावल,
बोरे में बचा था कुछ चावल,
चावल- जिससे मिटाते हैं भूख,
चावल बस एक समय का.

 इंतज़ार,
रात का इंतज़ार,
स्याह होने का इंतज़ार,
इंतज़ार-तारों का नहीं, सिगरेट के टुकड़ों का.

 उम्र,
मोमबती सी पिघलती उम्र,
उम्र के जाने के साथ जाती नौकरियाँ,
उम्र की कैद में सिमटी नौकरियाँ.

 उम्मीदें,
कूड़े के हवाले हैं उम्मीदें
उम्मीदें-जिनपर खड़ा है आदमी,
उम्मीदें-जिनपर लगे हैं संशय के जाले.

सवाल,
सब पूछते सवाल दर सवाल,
सवाल-जिसके लच्छे छोड़ चटखारे लेते आदमी,
सवाल- पढ़ाई खूब, नौकरी छोटी-मोटी?.

पूछता,
मुझसे कोई तो पूछता-
पूछता- कैसा लगता है
अर्जियों के जवाब में बंद, सपनों का इंतज़ार?
पूछता- कैसे कर सकता है
सपनों से थका आदमी किसी भी गुलामी का इंतज़ार?
पूछता- मुझ युवा पर दंभ भर्ती सरकार
कैसे कर सकती है योग्यताओं को तार-तार?
कैसे दे सकती है क्रूर दिलासों का व्यापार?
कि कोई तो जाए, गुहार दे, चीखे-चिल्लाए,
कि हमारे वोट पर ऐंठती सरकार!
टूट-फूट गए हैं हम, अब और न होता इंतज़ार.

(कविता को कोई नाम नहीं दे पाया, हो नहीं पाया)


माना मैं बड़ी नहीं,
इतनी कि फलसफे झाड सकूँ,
भावों के पूल खड़े कर,
जमा कर सकूँ,
तुम्हारी आँखों का पानी.

सुनो, ताज्जुब एक बेतुका शब्द है,
कि छोटे-छोटे सदमों को समोते-समोते,
ताज्जुबों को मिटाते-मिटाते,
अब हम ढीठ होते-होते ढह गए हैं,
सदमे अब चौंकाते नहीं, डर दे जाते हैं,
डर जो करने लगता है,

हमारी रही सही हिम्मत की पहरेदारी,
फिर एक दिन बहुत साफ स्पष्ट लिखा दीखता है- 
“मैं असहाय हूँ”,






अपनों के नक्काश हाँथ देते हैं पीड़ा,
पीड़ा जो महीन सूई की चूभन सी होती है,
मुझे आज़ादी दे,
हिसाब रखने को कहा जाता है,
बुलंद होने की दुहाई दे,
हिजाब रखने को कहा जाता है,
नक़ल-नक़ल में बेटी को बेटा कहा जाता है,
असल-असल में बेटी को बेटी की तरह ही सहा जाता है,
बहुत साफ है,
कोई करीबी नहीं होता ना ही दूर का होता है कोई,    
खून का रिश्ता या कोई भी, कुछ भी,
दूरी ही एक सच है,

दूरी जो अब छीपी-छिपी समझी-बूझी आदतों में शुमार है.

Wednesday, February 13, 2013

कुसूरवार कौन ?


तुमने उसे नहीं मारा,
न मैंने मारा है,
न जिस पर उठा है बबाल,  
उस सरकार ने दिया है इसे अंजाम,
वोट उसका कुसूरवार है.  
वोट जिसको फक्र है अपने निरपेक्ष होने का,
वोट जिसको अब भी है गुमान,  
कि वह  सर्वेसर्वा है,
कि जिसकी अंगुली की स्याही से लिखी जाती है तकदीरें,
उसकी तकदीर में नहीं होती है असल स्याही,  
ताकि वह अलीफ बे ते से के मारे
कुछ गर्म जेबों की बदल सके तकदीर.

 
मौत उसकी नहीं हुई है जो मरा है,
मरा तो यह देश है,
जिसके पिट्ठुओं ने,
वोट की एवज में कर दिया है उसका क़त्ल.   
मरा तो वह है,   
जिसकी आवाज़ जनपथ पार नहीं कर पाती,
जिसकी आवाज़ को नहीं मिल पाती गिलानी को मिली हुयी आवाज़,
जिसकी आवाज़ को “जख्मी सामूहिक अंतरात्मा” की आवाज़ की साज़िश के तहत....
गुमनामी, अफरा-तफरी में नाबूद कर दिया जाता है.

 वोट तो वह भी था,
जिसकी लाचारी और असहायता का फायदा उठा
वोटर लिस्ट और जीवन से हटा दिया गया उसका नाम
भयानक है ऐसा सोचना की हो रहा है यह,
वोटों की साजिश के तहत,
हिंसा परमो धर्मं: की सीख दे,
आदमखोरों में किया जा रहा है तब्दील,
बेशर्म सरकारें सफाई-गवाही देने में व्यस्त है,
वोट के अखाड़े में सर्वोच्च न्यायालय निरस्त-पस्त है.

   

 

 

कविता : आसां हो जाता


जैसे गाडी के आईने में दिख जाती हैं,
पीछे की आवाजाही,
वैसा कुछ भी तो नहीं होता असल जीवन में,
कि थोड़ा बगल हट लें, दे दें थोड़ी जगह,
स्मृतियों में फंसे उन ग्लानियों को...
जो तंग कर देतीं हैं आगे जाने का रास्ता....







जीवन के सड़क पर,
फँसी रह जाती हैं उदासियाँ, क्षोभ, हताशा, भूल में हुई भूल बनकर,
... जिन्हें मिल जाता जो थोड़ा भी किनारा,
तो सड़कें साफ हो जातीं
सफर कुछ-कुछ आसां हो जाता