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Friday, August 16, 2013

मैं तुम हूँ.... तुम मैं हो !



मैं किसी कट्टर वाद का फरमान नहीं,
न कोई संवैधानिक चेतावनी,
न किसी संक्रामक गुप्त रोग
धूम्रपान, गुटके का इश्तिहार,
जिन्हें देख मन और छटपटा जाए,
मन भर, भर जाए भय हिया में,  

 अंखुआ भर हूँ मैं,
टिफिन की चार रोटी, एक अंचार और एक हरी सब्जी,
मेरी बजूद की आप बलाएँ लेते हो,
मुझसे ताल्लुक रखती है औसतन सारी दुनिया,
मैं अपने चौके की गणेश की परिक्रमा हूँ,
बकायदा मानुष हूँ, ठोंगे भर जुगाड़ हूँ,
मुझमें इयारी का लूर है, जो किसी का मुदई कतई नहीं,
मैं अनेरिया हूँ, जो अनेरुआ उग ही आता है,
इतना थुथुराया हूँ की थेथर हूँ,
मैं एक शातिर बोका हूँ,         
जिसे हलख से ज़बान गायब करने का प्राकृतिक हूनर है,
मैं तुम हूँ,
तुम मैं हो.  

Monday, August 12, 2013

कविता : ग्लैडिएटर





थकहार जब कुछ न हुआ...
जब किसी ने न ली सूध, तो मजबूरन.....
पेड़ों ने अपनी छाया संग किया समवेत विरोध,
जंगलों को पक्षियों ने दिया अपना संधिपत्र,
कीड़ों ने तान लिया सीना,
वे निकले जत्थे के जत्थे,
और हवाओं ने पेड़ों का संदेसा मनुष्यों को सुनाया,

तुम, तुम्हारी  सभ्यता लकड़हारे थे,
इसलिए दुधारी दाव लिए इधर-उधर घूमते रहे,
जारी करते रहे हरियाली को हलाल करने के फरमान, 
हमारी सुरक्षा के लिए बनती रहीं योजनाएँ,
कि कैसे बनाया जाए एक भव्य कत्लगाह, एक आलीशान रेगिस्तान, 

हर कोई तबाह होता है,
केवल मनुष्य नहीं,
चींटी और दिमक भी करते हैं जी तोड़ मेहनत,
केवल मनुष्य नहीं,
अपने समाज के साथ वे भी करते हैं गुज़ारा,
केवल मनुष्य नहीं.

मनुष्य, मनुष्य था सो वह मनुष्य ही रहा,
पेड़, पेड़ थे इसलिए आखिरी साँस तक लड़ते रहे मनुष्य से मनुष्य खातिर.
जिस दिन गिरा आखिरी पेड़, मनुष्य भी उसी दिन गुज़र गया.

Friday, August 2, 2013

बेमौत मौत और मुआवज़ा


बेमौत मौत और मुआवज़ा
दोनों खेद की बाते हैं,
मौत, गिरा जाती है पहाड़,
तस्वीर को छाती लगाए, पथरा जाते हैं आँसू,
और मुआवज़ा किसका?
कब और क्यों ?
में अटक के रह जाता है मुआवज़ा,
ऐसे में रोटी जुटाने में उठा एक भी हाथ,
तसल्ली देते हजारों दिलों से बड़ा होता है.


















सच कहता हूँ,
कलम भी पूछता है औचित्य,
अच्छा है कि मैं इस देश के गुरुओं का,
भक्त एकलव्य नहीं,
मैं कवि हूँ,
जिसका जी, लाख पथराये,  पर नम हो ही जाता है.
ईमान, आंसू में नमक मिला ही जाता है.
कि कागज़ी मुआवजे हकीकत में बदलने में घस लेती हैं चप्पलें
और कलम पूछती है बेमौत मौत और मुआवज़े के बीच का नारकीय जीवन,
कवि, अशक्त
कलम को दे नहीं पाता स्याही.
वह लाखों की तरह अपने चुनाव पर शर्मिंदा है.

Thursday, August 1, 2013

मैं- माने आज का बुरबक कल का विवेकी कहाँ रहूँगा (एक डिस्टोपिया)


इस तरह रहा तो मैं कहीं का नहीं रहूँगा, 
न इसका, न उसका, 
कोई टैंकर में मिला पिला जाता है दारू, 
कोई परिवार के जन-जन को पहुँचा जाता है पाँच हजार, 
कोई भोर, मूँह छिपाए, आकर बाँट जाता है फर्जी आईडी, असल बीपीएल कार्ड, 

मैं सोचता हूँ वह एक दिन, 
ब कुम्भकर्ण को भी कर दूंगा पानी-पानी,
न भरेगी पेट मेरी, न रेंगेगी कान पर जूँ,
कैसे करेंगे जनताजनार्दन मेरी भरपाई?
क्या वायदे होंगे?
कैसी खेली जाएगी बिसात?
क्या होंगे सवाल और कैसे पेश किये जायेंगे जवाब?
जब राम-अल्लाह की बात सुन लोग जम्हाई लेना भी समझेंगे तौहीन,
न जाति, न नस्ल, न लिंग, न भाग्य, न मोक्ष, न जिहाद, न जन्नत,
न नक्सल, न दंगल, न टीवी, न मिड डे मील,
न मिक्सर, न लैपटॉप, न खाद्य सुरक्षा बिल,
न ये न वो, हेन-तेन
कर पायेंगे मेरी क्षूधा शांत,
बताओ तो कौन से असलाह होंगे जो दागे जायेंगे?
ताकि रोक दें मेरी एक जुम्बीश भर भी.
कैसे करेंगे ये झंडाबरदार मेरा सामना?
कि ‘सब ठीक है न’? पूछ भर लेने से
क्या उनके पांवों को लग जायेगी घिग्घी?
धडकनों को मार जाएगा लकवा?
कि एक कदम चलने पर ही जवाब दे देंगी पसलियाँ
और हर एक डॉक्टर लटका देगा नो एडमिशन,
क्या महज़ देख भर लेने से पसीने-पसीने हो जायेंगे वो?
कि जूते, थूक, पिटाई-लताई की पड़ेगी न कोई ज़रुरत,
क्या होगा मेरा देश के आर्किटेक्टों का,
भय होता है, कि सियासी बिजनेस को जब लग जाएगा
आम आदमी के विवेक का दीमक.
तो दर-दर भटकने के भी नहीं रहेंगे लायक,
इस तरह रहा तो मैं कहीं का नहीं रहूँगा,
क्योंकि मुझ जैसा नकारा,
केवल बतियाने-गपियाने को बना है.
और तब के जोकरों के तर्ज पर,
कहूँगा,
कविता ख़तम, राजनेता हजम.

पर हो चुकी होगी बड़ी देर
कहाँ रहूँगा मैं भी?
तब तक गर सरजमीं होगी तो होंगे अमूमन पचास हिस्से.
कहाँ रहेगी मेरी माँ, मेरी बेटी, मेरे बिरादर,
मुल्क का कौन सा हिस्सा होगा मेरे अपनों के नाम,
इस तरह रहा तो मैं कहीं का नहीं रहूँगा.