(इस कविता में कविता कम किस्स्गोई अधिक है, जैसे अफसाना लैला-मजनू की वैसे ही कविता मुमताज सलीम की)
बच्चियों के अलीफ बे ते से के लिए,
बाल पकाने के बाद,
मुमताज़ ने एक आखिरी बार,
सलीम से ताज देखने की बात कही,
सलीम ने उगलदान में पान थूका और अपनी जेब थपथपा दी.
शोखी के दिनों के बहुत दिनों बाद,
मुमताज़ ने सलीम का हाथ हाथों में लेते हुए कहा-
सलीम कुछ पूछती हूँ तुमसे !
जैसे गुजरा है हमारे साथ
वैसा क्या कुछ गुजरेगा बच्चों के साथ?
उनकी लम्बी उम्र की दुआ के बावजूद,
क्या उन्हें भी हमारी तरह,
कुछ-कुछ अधूरा-अधूरा ही लगेगा ?
कुछ-कुछ छूटा-छूटा सा...
कुछ-कुछ जैसे पूरा होना हो बाक़ी...
सलीम क्या यह मायने रखता है
कितनी दूर तलक वे जाएंगे ?
या की यह कि उनके बच्चे भी...
खुद को छूटा-छूटा सा ही पायेंगे ?
क्या, अधूरी ख्वाहिशों का गट्ठर है यह जीवन सलीम?
मुमताज कहती रही...
ओ मेरे हमनवा...मैं अब समझ पाई हूँ...
हम सभी बच्चे रह जाते हैं...
कुछ न कुछ सपनों का जूठा रह ही जाता है.
मुमताज कहती रही...
गोया तुम शिकायत से गुरेज़ खाना,
अधूरे जीवन से तो कतई नहीं,
कहते-कहते मुमताज ने बंद कर लीं आँखें...
सुनते-सुनते सलीम और सुनने की हसरत में बदहवास हो चला....
मुमताज़, सलीम से, दुनिया-जहान से रहे-सहे गिले-शिकवे कर मिटटी हो चली....
सलीम हौले हौले साँसों की गिनती भूल चला,
सारी कायनात सर्द, सख्त और संगदिल हो चली,
भरोसे, इन्सानपरस्ती को तन्हाई और मुफलिसी के जाले लग चले,
यूँ अपनी हज़ार कोशिशों के बावजूद मुकर चला सलीम,
इजहार-ए-इश्क का मारा सलीम...... रगों में मुमताज़ को लिए
रोज़ छत पर बैठे-बैठे बौराता फिरता रहा
इस तरह एक दिन विश्वास के फेरिहस्त से खुदा, मुमताज़ और खुद को वह तखलिया कह चला,
जिसे आने की इजाजत मिली...
वहाँ आज उसकी तीन बेटियाँ फूल चढ़ाती हैं.
________________________ - अनुज - ____________________________
बहुत अच्छे, बूरा न मानें तो एक बात कवि महोदय, अपनी कविता के बारे में राय खुद लिखकर रखिएगा, पाठकों को नजरिया देना तो चाहिए किन्तु रचना का ग्रहण पाठक पर छोड़ दें तो और भी बेहतर होगा, कभी-कभी अनचाहा अर्थ, अतिरिक्त अर्थ भी निकल सकता जो विस्तारित भी हो सकता है । धन्यवाद एक और बेस्ट रचना के लिए । - एक पाठक
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