तीनों
मेरी बगल में बैठते हैं,
कभी
यह तो कभी वह, पर रोज़ बैठते हैं,
कभी कोशिश करते हैं,
कभी बेशर्मी से जमा देते हैं तशरीफ,
जैसे कोई तार जुड़ा है अभेदी...
तीनों के बीच...
नहीं पाते स्पर्श,
तो अपनी निरी बुद्धि पर...
उन्हें सुखद आश्चर्य होता है,
चेहरे पर मन की गालियाँ लिखी होती हैं,
भावों में घृणा और तिरस्कार मिली होती है..
तीनों मेरी मंजूरी के बगैर
मुझसे गुज़रना चाहते हैं-
एक मुकम्मल होने के लिए...
एक स्वयं को मांझने के लिए...
और आखिर अपने पछतावे को घुलाने के लिए.
क्योंकि जिनका गला खखार से भरा होगा
वे, यही तीन होंगे.
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