माना
मैं बड़ी नहीं,
इतनी
कि फलसफे झाड सकूँ, भावों के पूल खड़े कर,
जमा कर सकूँ,
तुम्हारी आँखों का पानी.
सुनो,
ताज्जुब एक बेतुका शब्द है,
कि
छोटे-छोटे सदमों को समोते-समोते, ताज्जुबों को मिटाते-मिटाते,
अब हम ढीठ होते-होते ढह गए हैं,
सदमे अब चौंकाते नहीं, डर दे जाते हैं,
डर जो करने लगता है,
हमारी रही सही हिम्मत की पहरेदारी,
फिर एक दिन बहुत साफ स्पष्ट लिखा दीखता है-
“मैं असहाय हूँ”,
अपनों के नक्काश हाँथ देते हैं पीड़ा,
पीड़ा जो महीन सूई की चूभन सी होती है,
मुझे आज़ादी दे,
हिसाब रखने को कहा जाता है,
बुलंद होने की दुहाई दे,
हिजाब रखने को कहा जाता है,
नक़ल-नक़ल में बेटी को बेटा कहा जाता है,
असल-असल में बेटी को बेटी की तरह ही सहा जाता है,
बहुत साफ है,
कोई करीबी नहीं होता ना ही दूर का होता है कोई,
खून का रिश्ता या कोई भी, कुछ भी,
दूरी ही एक सच है,
दूरी जो अब छीपी-छिपी समझी-बूझी आदतों में शुमार है.
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