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Sunday, February 24, 2013

कविता : उपेक्षित


उसकी आँखों में वर्फ जमा है,
जो झपकती नहीं पलकें..
कि इतने में तो...
बच्चियाँ औरत हो जाती हैं..
माएँ विधवा,
और गाँवों से नाम गुम...
 
उसका चेहरा सख्त है,
और उम्र का तकाज़ा मुश्किल,
उसके चेहरे पर,
हमउम्रों के नाम गुदे हैं,
 वह पढने को जाता है दिल्ली,
दिल्ली उसे पढ़ नहीं पाती,
गगनचुम्बी इमारतों से
उसे अपनी पहाड़ियाँ बड़ी होती नहीं दिखती,
 
घाटियाँ गहरी और संकरी होती दिखती हैं,
 
जहाँ कंकाल बन जाने को दफन कर दी गई
सैंकड़ों बुलंद आवाजें.
 





खौफ बन रगों में खून बहता है बदस्तूर,
जहाँ गैरमुल्क की निगाहों से देखते हैं,
मुल्क के बाशिंदे,
वहाँ मुल्क से वफाई का उलझन ताउम्र कायम रहता है.
वह सख्त चेहरा जब उठा लेता है हथियार,
तो मासूमों को बरगलाने का बहाना दे
पड़ोसी मूल्क की तरफ हो जाती है उंगली.
 
दो मजहबों, दो सीमाओं, दो सोच में बंट जाता है चेहरा,
जिसकी शिनाख्त से कतराते हैं ज़िम्मेदार,
कि जैसे बनाई जाती है औरत
वैसे ही तैयार किये जाते हैं सख्त चेहरे.
जो तालीम को जाते हैं दिल्ली.
और दिल्ली अपनी धुनी रमाये रहती है.

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