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Monday, October 29, 2012

आखिरी पड़ाव


अपने पक्के मकान के छज्जे पर
खड़े-खड़े सोचता हूँ,
इन दिनों सोचता रहा हूँ,
ये किस मुकाम पर आ पहुँचा हूँ,
कि हालात खदेड़ते हैं सपनों की तरफ,
और सपने हैं कि,
फ्यूज़ होती बल्ब की तरह लुका-छिपी खेलते हैं.
सोचता हूँ,
ज़िदगी मेरी कैसी कटी,
 
 
Courtsey : Google Images
क्या धुप में सूखते ओस की तरह,
या,
एक चींटी की तरह,
जिसके हाथ शक्कर का एक बोरा लग गया हो.
सोचता हूँ,
तो दोनों लगते हैं,
कभी वक्त यूँ ही बिता, कभी बिताना पड़ा.
सुख की छिड़कन के साथ दुःख का रिसाव भी मिला.
पूरे जीवन का कैनवास,
एक मध्यम-वर्गीय पुरुष का,
जिसे अपने ही घर में,
रिश्तों की दुहाई दे
एक कोना थमा दिया गया.
जो बहरा नहीं,
पर कम सुनने का बहाना करना पड़ा.
जिसके चुप रहने को विकट ज्ञानका नाम दिया गया,
जिसकी झुर्रियों और दागों को अनुभव की संज्ञा दी गई,
और,
एक पुराने मेडल की तरह बार-बार लोगों के सामने पेश किया गया
कि,
देखो ये हैं सफल व्यक्ति, जीवन के सारे मौसम इन्होने करीब से देखें हैं

सारी उम्र फिक्रामस्ती में गुज़ारी ज़िंदगी
अब एक उमसते जेल की तरह लग रही है
और आखिरी पड़ाव पर
बालकॉनी पर चाय पर चाय पीना,
बासी अखबार बार-बार पढ़ना
बच्चों के बच्चों का स्टेपनी बनना,
बच्चों को खेलते मुस्काना, खुश होना, बच्चा होना
बदलते ज़माने पर अफसोस करना
और
बची साँसों का इंतज़ार करना
महज़ यही सब बच गया है
जिंदगी के आखिरी पड़ाव पर.
 

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