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Monday, October 29, 2012

"माँ"



माँ वह,
जिसके प्रेम से,
मजबूत कुछ नहीं।
जो कबूतर की तरह चुगती है,
हमारी मुश्किलें।
जिसका प्रेम, एक दरिया है,
जो बारहमासी है।
जो हमारी गिरहों को सुलझाने में,
उलझाती जाती है अपना जीवन।
जिसका अपनोंको प्रार्थानाओं में रखना,
जीवन जीना है।
माँ,
वह शाश्वत लोरी है जिसका गुनगुनाना,
सारे मैल धो देता है।
एक ऐसा खिला फूल है, जो दुःख और सुख,
दोनों में नहीं मुरझाता।
माँ वह,
जिसकी अबोध हँसी में,
मिलते हैं सारे दुखों और कष्टों के मरहम।
जो वाहवाही नहीं लुटती बल्कि चाव से संजो के रखती है,
बीते खुशियों के दिन।
जिसका हर रूप जरुरी है बचा रहना,
रही-सही इंसानियत की मरम्मत के लिए।
माँ,
एक ऐसी कविता है, जिसके खत्म होते ही,
सालता है उसके आजीवन तिरस्कृत रह जाने का बोध।



 
 

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