डाक्टर से दिखा लिवाने के
बाद
गाँव के उस चलताऊ होटल में
गर्मी और उमस से भरे दिन में
एक बड़े खम्बे वाले पंखे के
नीचेराधा ने बेपरवाह हो टिफिन खोला
और कौर बना-बना के धैर्य के
साथ
गोपाल को खिलाने लगी
और खुद भी खाती रही..
जब-जब वह खिलाती..
उसकी आंखें चमक उठतीं थीं
वह भात भी बना सकती थी
मिठाइयाँ भी, हलवा-पूड़ी
भी
पर उसने रोटियाँ और भुजिया
ही बनाईं
अपंग गोपाल कुर्सी पर भावहीन
बैठा रहा
चुपचाप खाता रहा...
उनकी शादी को 30 साल हो गये हैं
आज ही उनकी शादी हुई थी.
राधा की आँखों की चमक
आज भी अबोध चंचलता लिए हुए
हैं.
वह शब्दहीन प्रेम लिए हुए
हैं.
जो गोपाल की मूक आँखों की
मुस्कान में....
आज भी देखने को मिल जाती है.
एक-दूसरे की आँखों में गोते
लगाते
आज भी वे प्रेम में तर-बतर
हैं.
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