कविता : सपने नहीं आते...
सड़क के लिए गिटियाँ तोड़ते, कोलतार बिछाते बच्चों को…
सपने नहीं आते
ट्रेनों में जूते साफ करते, खेल तमाशा करते बच्चों को…
सपने नहीं आते
माचिस की तीलियाँ, पटाखें बनाते बच्चों को…
सपने नहीं आते
सार्वजनिक शौचालय, नाले साफ करते बच्चों को…
सपने नहीं आते
कताई करते, कालीन बनाते, कपड़े धोते-रंगते बच्चों को…
सपने नहीं आते
रबर उगाते, चाय की
पत्तियाँ तोड़ते, कॉफी के
बागानों में काम करते बच्चों को…
सपने नहीं आते
खानों में काम करते, पत्थर चढाते, सीमेंट ढोते
बच्चों को…
सपने नहीं आते
गजरा बेचते, दस का चार
चिल्लाते, सस्ती सीडी
बेचते बच्चों को…
सपने नहीं आते
ईंट के भट्टे में काम करते, ईंट पकाते, ईंट उठाते बच्चों को…
सपने नहीं आते
चाय बनाते, चाय पहुंचाते, बर्तन-बासन करते बच्चों को…
सपने नहीं आते
तम्बाकू उगाते, बीड़ी बनाते, बीड़ी पीते, नशा करते बच्चों को…
सपने नहीं आते
शीशा बनाते बनाते अपने ही आँखों में शीशा घोलते…
ताले बनाते बनाते अपने ही ख्वाहिशों पर ताले लगाते…
कच्ची उम्र में हवस के शिकार बने बच्चों को…
सपने नहीं आते
सपने क्या है, क्यों होते हैं, ज़रूरी हैं?
इससे उनका कोई साबिका नहीं
शरीर के ऐंठन और थकान से चूर
वे तो सोते हैं
अगले सुबह उठने
और फिर
सपने न देखने के लिए...
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