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Wednesday, October 31, 2012

क्यूँ न लिखूँ मैं?

क्यूँ न लिखूँ मैं,
जब मेरे सहचर- साथी
चुप हैं,
या लिख रहे हैं,
अ से अनार,
क से कमल,
क्यों कतरा रहे हैं,
लिखने से,
ब से बीमार, बेकार,
तौबा! तौबा! मेरी सरकार!
मैं बार-बार लिखूंगा,
एक लड़का शिक्षा से वंचित है,
पाल रहा पांच पेट,
मिठाई की वर्क बनाते-बनाते
उसने किये हैं प्रहार अपने ही संवेदना पर
यातना की मारी एक जवान लड़की
भरती जा रही कुम्भकर्णी ससुराल का मुंह
और दहेज़ की मियाद बढती जा रही
18 घंटे काम करने पर भी खाता है
एक गरीब आदमी
मालिक की फटकार
मानों उसका होना, होना है ही नहीं
मर रहीं हैं आवारा आत्माएं
सड़कों पर,
ठण्ड से, बलात्कार से.
कभी- कभी मोटर-कार से
घोटालों को अपनी माँ बनाकर
फल फूल रहें हैं कुछ दिग्गज
और सरकार खुद को रखैल बनाये रखने में
कोई कसर नहीं छोड़ रही,
मैं सब लिखूंगा.
गरीबी, भूख, अशिक्षा,
स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी,
लैंगिक भेदभाव,
बाल श्रम, बाल विवाह,
घरेलू हिंसा
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का दमन
मानव तस्करी, क्षेत्रीय हिंसा
ये सब मानव अधिकार की बातें हैं
ये बातें रहें तो ही अच्छा है
तुम एक पहल करो,
और पागल करार हो जाओ,
न न !
हमें हमारे खेमे में ही रहने दो.
हम राजी-खुशी जी लेंगे.
सच है,
कोटर की छेद से देखने से,
चीजें अच्छी-अच्छी ही लगती हैं!
हाँ,
पर नहीं
यह जानते-बुझते कि..
मेरे देश की तरह ही,
अफगानिस्तान, पाकिस्तान,
लीबिया, सीरिया,
इराक, पेरू,
अफ्रीका, मिश्र आदि आदि..
तबाह हो रहे हैं अन्दर-अन्दर ही...
घस गई हैं,
मानवीय गरिमा से जुड़ी बातें,
यत्र-तत्र-सर्वत्र,
पर हैं,
और मैं लिखूंगा,
कि कचोटती हैं,
अन्दरभीतर, बातें,
एक अदद इंसान को.
सच है-
जो इन दर्दनाक स्थितियों से गुजरा है
जिसने जिया है भोगा है तिल-तिल रोज़-रोज़
वह मैं नहीं, तुम नहीं,
वरना....

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