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Wednesday, October 31, 2012

हम अपना भ्रम पालना नहीं छोड़ते


 
कपड़ों की लुगदी में फंसे,
उस क्षीणकाय को देख भ्रम हुआ,
वह भंगियाया हुआ है,
नशाखोर, धरती का बोझ.
पर ऐसा था नहीं,
दरअसल,
तालू से चिपक गई थी जबान,
भूख ने गड़मड़ा दिया था...
चेतन-अवचेतन का गणित.
भूख एक धीमी आँच..
जो छोटी-छोटी चिंगारियों में...
सोखती चलती है साँसें..
यहाँ-तहाँ छिद जाता है शरीर,
और जब जुड़ते हैं सारे छेद...
एक नीरव विस्फोट होता है..
और..
सबसे बदतर होती है शुरुआत,
शरीर बार-बार कुलांचे भरता है..
विद्रोह में..
और दिमाग आशा की बैसाखी लिए
भय को जिन्दा रखता है.
धीरे-धीरे..
आशा की भी टूट जाती है बैसाखी,
भय तब्दील होने लगता है ..

Courtsey : Google Images
एक अंतहीन थकन में..
आदमी सुन्न हो जाता है..
जिए और मरे का, फर्क भरमा जाता है.
ऐसे में जब दीखते हैं..
भूख के सताए..
तो मूंह ढांपे गुज़र जाती हैं औरतें,
बच्चे पत्थरों से,
और मर्द गालियों से, लातों से,
नवाज़ना नहीं भूलते.
भूख की आँच करती रहती हैं विस्फोट,
निजात पाने के एवज में
मृत्यु-आलिंगन को रोता है आदमी.
और,
हम अपना भ्रम पालना नहीं छोड़ते.

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