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Wednesday, October 31, 2012

शब्दहीन पल


उगते सूर्यास्त में,
डूबा हूँ मैं,
मन गोते लगाता,
चिड़ियों की चहचहाट में.
सांसें रोक लीं,
ताकि उलझ-थम जाएँ शब्दहीन पल.
सूरज एक पीला संतरा,
कर रहा साफ..
मेरी दिक्कत भरी आँखें.
सूरज एक गोल रंग की टिकिया ,
घोल रहा नदी को अपने रंग में.
मन भारी-हल्का सा है,
हल्का-भारी सा!
करता गुहार
तुम होती,
तुम्हारी नर्म हाथें होतीं,
हमागोश होते, लम्हों में कम्पन होती.
और,
सूरज शर्म के मारे,
अलविदा कहते-कहते,
सुर्ख लाल हो जाता.


 

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