Search This Blog

Wednesday, October 31, 2012

पाता हूँ उसको


आज फिर सुबह हुई,
सूरज फिर उगा सुस्ती के साथ,
कोहरे छानते रहे धूप को,
आज फिर ठंडक घुल गई है फिजाओं में,
पत्तों पर ओस की बूंदें,
गिरने के लिए ठहरी हुयी हैं.
आज फिर नदी बुलाती मुझको,
उसके बगल बैठा..
बुनता-बीनता रहा रहूं ज़िन्दगी,
पेड़ पुकारते, छाँव का देते लालच,
आज ही.

                                                                                                         सबकुछ कल की तरह ही है,
Coutsey : Google Images
आज पर मैं देखता-बांचता हूँ सब,
सुनता हूँ प्रकृति का हर एक नाद.
आज जिसके हाथों की नमी,
काफूर हो रही जेहन से .
पाता हूँ उसको,
धरती के हर सुन्दर सृजन में.
 

No comments:

Post a Comment