स्मृति का सहारा ले,
देख रही हूँ मैं,
जिंदगी के उस हिस्से को
जिसमें ताज़ी सांसों के एवज़ में
सुबह-सुबह लोग
अपने घोंसलों से निकला करते थे
और मैं-
किया करती थी साफ
शहर-भर का चेहरा
इतना खौफ, इतना भय
भर गया था
कि सुहाग रात के दिन
घंटों खुद को सूंघती रही
मेरी पोती का आइसक्रीम के लिए झूठमूठ रोना
मुझे ले आता है आज में,
मैं लेती हूँ अपने पति का,
झुर्रियों भरा हाथ,
खुश्क मजदूर के हाथ,
हमेशा स्नेह से नम रहे,
लुढकते आंसुओं को पोंछते हुए,
दूर देखती हूँ अपनी बेटी का मुस्कराता चेहरा
उसके कंधे पर स्टेथेस्कोप है,
और मेरी छाती में कूट-कूट कर समाहित है,
एक अधेड़ दंपत्ति की सफलता का गर्व.
क्यूँ न लिखूँ मैं,
जब मेरे सहचर- साथी
चुप हैं,
या लिख रहे हैं,
अ से अनार,
क से कमल,
क्यों कतरा रहे हैं,
लिखने से,
ब से बीमार, बेकार,
तौबा! तौबा! मेरी सरकार!
मैं बार-बार लिखूंगा,
एक लड़का शिक्षा से वंचित है,
पाल रहा पांच पेट,
मिठाई की वर्क बनाते-बनाते
उसने किये हैं प्रहार अपने ही संवेदना पर
यातना की मारी एक जवान लड़की
भरती जा रही कुम्भकर्णी ससुराल का मुंह
और दहेज़ की मियाद बढती जा रही
18 घंटे काम करने पर भी खाता
है
एक गरीब आदमी
मालिक की फटकार
मानों उसका होना, होना है ही नहीं
मर रहीं हैं आवारा आत्माएं
सड़कों पर,
ठण्ड से, बलात्कार
से.
कभी- कभी मोटर-कार से
घोटालों को अपनी माँ बनाकर
फल फूल रहें हैं कुछ दिग्गज
और सरकार खुद को रखैल बनाये रखने में
कोई कसर नहीं छोड़ रही,
मैं सब लिखूंगा.
गरीबी, भूख, अशिक्षा,
स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी,
लैंगिक भेदभाव,
बाल श्रम, बाल
विवाह,
घरेलू हिंसा
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का दमन
मानव तस्करी, क्षेत्रीय
हिंसा
ये सब मानव अधिकार की बातें हैं
ये बातें रहें तो ही अच्छा है
तुम एक पहल करो,
और पागल करार हो जाओ,
न न !
हमें हमारे खेमे में ही रहने दो.
हम राजी-खुशी जी लेंगे.
सच है,
कोटर की छेद से देखने से,
चीजें अच्छी-अच्छी ही लगती हैं!
हाँ,
पर नहीं…
यह जानते-बुझते कि..
मेरे देश की तरह ही,
अफगानिस्तान, पाकिस्तान,
लीबिया, सीरिया,
इराक, पेरू,
अफ्रीका, मिश्र
आदि आदि..
तबाह हो रहे हैं अन्दर-अन्दर ही...
घस गई हैं,
मानवीय गरिमा से जुड़ी बातें,
यत्र-तत्र-सर्वत्र,
पर हैं,
और मैं लिखूंगा,
कि कचोटती हैं,
अन्दर—भीतर, बातें,
एक अदद इंसान को.
सच है-
जो इन दर्दनाक स्थितियों से गुजरा है
जिसने जिया है भोगा है तिल-तिल रोज़-रोज़
वह मैं नहीं, तुम
नहीं,
वरना....
चार रातों से,
रात-रात भर रोती
रही.
किस ने उफ्फ तक
न की,
न ही टोही
हाल-चाल .
भरा-पूरा
परिवार...
और मैं रोती रही,
दर्द घर का घर
कर गया.
क्या यही हैं, जिन्होंने गुल को सींचा ?
क्या यही हैं, जिन्होंने बाहों में भींचा ?
कल तक मैं सबकुछ,
कल्पना, मेधा, बेदी सब,
आज उनकी मायूसी
का सबब.
कुल जमा चार दिन
हुए मुझे ससुराल छोड़े हुए.
कपड़ों की
लुगदी में फंसे,
उस क्षीणकाय
को देख भ्रम हुआ,
वह भंगियाया
हुआ है,
नशाखोर, धरती का बोझ.
पर ऐसा था
नहीं,
दरअसल,
तालू से चिपक
गई थी जबान,
भूख ने
गड़मड़ा दिया था...
चेतन-अवचेतन
का गणित.
भूख एक धीमी
आँच..
जो छोटी-छोटी
चिंगारियों में...
सोखती चलती
है साँसें..
यहाँ-तहाँ
छिद जाता है शरीर,
और जब जुड़ते
हैं सारे छेद...
एक नीरव
विस्फोट होता है..
और..
सबसे बदतर
होती है शुरुआत,
शरीर बार-बार
कुलांचे भरता है..
विद्रोह
में..
और दिमाग आशा
की बैसाखी लिए
भय को जिन्दा
रखता है.
धीरे-धीरे..
आशा की भी
टूट जाती है बैसाखी,
भय तब्दील
होने लगता है ..
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एक अंतहीन
थकन में..
आदमी सुन्न
हो जाता है..
जिए और मरे
का,
फर्क भरमा
जाता है.
ऐसे में जब
दीखते हैं..
भूख के
सताए..
तो मूंह
ढांपे गुज़र जाती हैं औरतें,
बच्चे
पत्थरों से,
और मर्द
गालियों से,
लातों से,
नवाज़ना नहीं
भूलते.
भूख की आँच
करती रहती हैं विस्फोट,
निजात पाने
के एवज में
मृत्यु-आलिंगन
को रोता है आदमी.
और,
हम अपना भ्रम
पालना नहीं छोड़ते.
प्रेम
किया,
अजब किया,
सड़कों, गलियों, चौराहों...
हाथ
पकडे-चूमते...
इश्क का
इज़हार किया.
स्पर्श
किया, संसर्ग किया,
गर्भ
दिया, गर्भपात किया.
रोये-धोये, चीखे-चिल्लाये,
फिर शुरू
वही कारोबार किया,
खुद को, शर्मसार- लाचार किया.
झूठा
व्यवहार किया,
अपना
जिया, अपना किया,
मतलब का
रोज़गार किया.
प्रेम
किया
गजब
किया.
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मैंने लिखा धरती,
उसने पढ़ा माँ
मैंने लिखा प्रकृति,
उसे ध्यान आया सहोदर,
मैंने लिखा चाँद,
उसने देखी रोटी,
मैंने लिखा सरकार,
उसने समझा न्याय.
मैंने लिखा पलास,
उसने समझा प्रेम फिर क्रान्ति,
मैंने लिखा, लिखा कई
बार लिखा...
दुनिया बची रहेगी.
आज फिर सुबह हुई,
सूरज फिर उगा सुस्ती के साथ,
कोहरे छानते रहे धूप को,
आज फिर ठंडक घुल गई है फिजाओं
में,
पत्तों पर ओस की बूंदें,
गिरने के लिए ठहरी हुयी हैं.
आज फिर नदी बुलाती मुझको,
उसके बगल बैठा..
बुनता-बीनता रहा रहूं ज़िन्दगी,
पेड़ पुकारते, छाँव का देते
लालच,
आज ही.
सबकुछ कल की तरह ही है,
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आज पर मैं देखता-बांचता हूँ सब,
सुनता हूँ प्रकृति का हर एक नाद.
आज जिसके हाथों की नमी,
काफूर हो रही जेहन से .
पाता हूँ उसको,
धरती के हर सुन्दर सृजन में.