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Friday, November 23, 2012

एक गाँव : दो चित्र


 एक

जैसे हटा हो कोई पर्दा, 
वैसे छँट चुका है कोहरा,
आँखों के विस्तार की सीमा तक,
पसरी है हरियाली
आँखे भर लेना चाहती हैं हरियाली
साँसे भर लेना चाहतें हैं हरापन

ओस से लदे खेत,
सुबह की रौशनी में सन कर,
हीरे हुए जा रहे हैं.

आम के गाछ इधर 
ताड़ के पेड़ उधर
कर रहे तैयार एक मनोरम कैनवास. 

 


दो 

कैनवास में हैं वे भी शामिल,
जो मेरी मस्तिष्क के व्यर्थ विस्तार से अजान,
मफलर का मुरैठा बाँधे,
आग तापते, चुस्कियाँ लेते,
आँख मिलने पर मुस्की छोड़ते
शहर की कलाई मरोड़ते
कर रहे बतकही का  प्रचार-प्रसार
कि उनके लिए तो  धरी पड़ी है,
सारी सुंदरता, सारे विचार, सारा विस्तार.  

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