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Thursday, November 8, 2012

कृतज्ञ हूँ


जब भी पोंछता हूँ यादों का आईना,
तुम चुपचाप बात करती दिखती हो,
दिखती-
आत्म-निसृत तुम्हारी सुंदर मौन मुस्कान.

जेहन से गुज़रती हो तुम..
जंगल के उस रास्ते की तरह...
जो किसी समय में साफ-साफ दिखता था,
अब तलाशना पड़ता है-
क्योंकि तुम्हारी आवाजाही नहीं होती,
बस याद रह जाता है,
एक रास्ता था कभी,
बहुत दूर एक मंजिल पर जाता था...
मैं-तुम उसे प्रेम मान चुके थे.
दरअसल,
हम एक ही ठिकाने के दो अलग बाशिंदे थे.
एक ही कहानी की दो अलग किताबें .
फेर बस इतना कि,
मैं गलतियों पर पला-बढ़ा,
और तुम सुंदर गम्भीर बनी ही थी.

मैं, अब! शांत, स्थिर चित्त.
तुम्हें याद कर, प्रेम के सही अर्थ बूझते चलता हूँ..
हर बार हृदय कृतज्ञता से भर आता है.
 

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