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Thursday, November 1, 2012

यह जो तुम्हारा ही है


तुमसे आँखें मिलती हैं
मेरा गला सूखने लगता है
हर बार खखारता हूँ गला
आँखे नीची कर कन्नी काट लेता हूँ
काट लेना चाहता हूँ
सवाल, सवाल और सवाल
झांकते है आँखों से
छटपटाते-खोजते-तलाशते जवाब
मेरे कहकहों में खनकता उल्लास
तुम्हारे पसीने का गिरवी है 
तुम्हारी नींव पर खड़ा मैं अल-बुर्ज

कतराता हूँ-बचता हूँ,
देखने से नीचे,
नीचे जो दिखती है गन्दगी,
उसी का कर्ज है,
कि मेरे आस पास बिछा है सुंदर,
तुम्हारी खटनी बुनती है मेरा आराम.
कौन भरेगा तुम्हारी आत्माओं का घाव?
कौन धोएगा तुम्हारे गंदे हाथ?
कैसे भरा जायेगा तुम्हारा क़र्ज़?
कब तक कन्नी काटेंगे हम?
यूँ सदियों से नकारते जाना एक उधार है
और
हर क़र्ज़ ब्याज पर टिका है.
अब जो करेंगे आनाकानी
तो तुम उठोगे
लीबिया से ,सीरिया से,
इराक से ,पेरू से ,
वोलिविया से,मिश्र से
और फैला दोगे गन्दगी चारो तरफ
भलाई इसी मैं मैं बाँट लूँ थोडा-कुछ सुन्दर
जो तुमने ही बनाया है,तुम्हारा ही है.

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