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Thursday, April 25, 2013

[कविता : सुनो जी !]



सुनो जी,
कहे देती हूँ तुमसे,
मेरा ताल तुम्हारे ताल से नहीं मेल खाता,
न ही तुम्हारे धून पर टिका हुआ है मेरा संगीत,
तुम्हारी भव्यता से भले ही पड़ जाए मद्धम मेरी आवाज़,
पर मैं बेसुरी नहीं.




तुम सौ दफा, सौ दलीले दे,
खुद को कर सकते हैं साबित बिलकुल साबुत,
पर भावों से उफनते कविता में,
फूलों से भरे शाख की बात न कभी आई है, न आएगी.  

नहीं सुननी-समझनी मुझे तुम्हारी कवितायेँ,
मुझे तो बस टमाटर की खटमिठी चखनी है,
जिसमें अब भी बुझे चूल्हे की ताप होगी,
जो गाढ़ी होते होते और चटखारी होगी,
मैं पूछती हूँ, तुम्हे खटमिठी पता है?  
माफ करना मुझे तुम्हारी कविता नहीं पता !

क्यों इतना गुस्सा?
जब कहूँ.....
आज खिडकी से ताकती रहूंगी,
बच्चों को स्कूल से लिवा लाना,
बर्तन बासन सरिया देना.

क्यों इतना मूँह बाना, जब कहूँ....
कि मैं निमित्त मात्र थी,
एक भी ऐसा फ्रेम नहीं जिसमें फिट बैठती,
न रंग, न गुण, न समाज के उठ-बैठ का सलीका, प्रेम तो बिलकुल नहीं,  
कि मैं न थी, परिवार था, परिवार का पैसा था.

क्यूं इतनी त्योरियाँ चढ़ाना ? जब कहूँ...
क्या-क्या हुई हूँ मैं,
तुम्हारे हवस का बिस्तर हुई हूँ,
तुम्हारे गुस्से के लिए जुटाया पीठ हुई हूँ,
वक्त-वेवक्त झाड़ू से जख्म बुहारे हैं मैंने,
तारे बुहारे, पेड़ बुहारे, जंगल-पत्थर सब बुहारे,
यूं डब्बे में इकठ्ठा कर, दिमाग के कोनों में कब से फ़ेंकती आ रही हूँ मैं.


क्यूं आँखें छोटी हुईं, जब कहा...
कि अब तक आपकी कविताएँ ही सुनती आ रही हूँ,
मेरा देखा, समझा, सुना सब आपका ही,
मेरा क्या? मेरे अनुभव क्या?
सब तो लिखा किया आपका ही !

सुनो जी,
यह बूझ लो,
मुझमें भी ब्रज बसा है, वृन्दावन भी,
मुझ भी खींचती हैं बंसुरिया,
तुम्हारे छह फीट के डील-डौल से परे भी बस्ती है दुनिया.
तभी कहती हूँ....अब मैं करवा-चौथ का तीज नहीं,
न ही मेरे गर्व का सबब है घर की चौकी-चाकरी,
मेरी ईमानदारी, मेरा विश्वास ही मेरी रीढ़ है, मेरा गर्व है.
जो कहती है तुमसे,
तुम्हारे लिए अपने समूचे प्रेम के बावजूद,
छोड़ सकती हूँ सब कुछ.
दो जून ख़ुशी खातिर.
क्योंकि तुम जैसा ही एक अदद इंसानी दिल,
इस सीने का भी हिस्सा है.

2 comments:

  1. बहुत बढ़िया.......
    बेहतरीन भावनाएं.......

    अनु

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  2. तेज तलवार की तरह की कविता।

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