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Wednesday, July 31, 2013

कविता : तब मैं सोचूंगा..



तुम मेरा अंगूठा बन जाओ, 
मेरी ज़बान भी..
मेरी पेशानी पर पड़े बल भी ले लो उधार, 
झुर्रियों से झाँकती उम्र से कर लो एक बार साझा.. 

एक बार ओढ़ लो मेरा लबादा, 
जानो अंगूठे के छाप होने का षड्यंत्र, 
जानो जबान का गूंगा होते होते अचानक तल्ख़ होना,
सदियों से पेशानी पर अफसोस ढोते ढोते अचानक पड़ जाना उनमें बल,
झुर्रियों में उलझे उम्र से जानो भूख का सामान जुटाने की यातना,
फिलहाल तुम बस इतना करो कि बुद्ध सा त्याग दो अपना उपनाम.
एक मनुष्य सा करो मेरा सामना....
रूँध आये गले से कहो...हाँ हम तुम्हारे साथ मनुष्य सा नहीं रह पाए...
तब मैं सोचूंगा...कैसे पेश आया जाए तुम्हारे साथ...
जिनावर सा....या मनुज सा...

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