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Tuesday, May 21, 2013

कविता : क्या वक्त बदला है?

 वक़्त तू बड़ा बेरहम निकला,
ऐसा कुछ भी तो नहीं किया तूने,
कि गफलत में रहूँ कि तू बेमुरव्वत नहीं,
तूने असमय उगा दीं मेरी छातियाँ,
और कर दिया हवाले, कपड़ो की लुगदियों के.
तूने हड़बड़ी दिखाई,
... खेलने न दिया गुड्डे-गुड्डी का खेल,
सामने कर दिया एक सांस लेता गुड्डा,
जो साँसों की नमी से मरहूम था. 




साभार : गूगल चित्र


ससे पहले कि मैं सीख पाती बाल-गूंथना,
तूने मुझे,
खूबसूरत होने का इलज़ाम लगा,
कर दिया मेरे वालिद के भय के हवाले,
कि जिसने पगड़ी उतरने के भय से,
नथ उतराई को कर दिया किसी और के हवाले.

यूँ, मूँह न फेर ऐ वक्त, सुन !
इससे पहले कि मैं आँक पाती अपनी ख्वाहिशें,
कोई मेरे माँस के वज़न पर फाँक गया मेरा बचपन.
मेरे उपजाऊ होने से पहले धर दिया बीज,
और मान लिया, एक कुशल मालिन,
पर हिरन की आँखों की तरह धँसे रह गए कुछ अबोध सवाल,
सवाल, जिसकी कूंजी गुमा दी, बापू ने, ससुर ने, पति ने और समाज ने.
कि जब खेलने-कूदने के दिन थे मेरे, तब मन बहलाने के लिए,
जबरन जनना पड़ा मुझे अपने जैसा ही एक और बच्चा.

वक्त, बहुत वक्त बीत चूका.....
अब हम आमने-सामने हैं...बता मुझे...
ज़िन्दगी पर हाथ आजमाने से पहले...
तूने क्यों थमाई हाथों में दर्द की पोटली ?
क्यों एक को बिस्तर खराब करने के सारे मौके दिए?
उसे सुलझाया, कच्छे से फुल पैन्ट बनाया, रूमानी किस्से दिए.
और मुझे कस पकड़ साड़ी पहना दी, धीरे-धीरे जिबह किया, बेवक्त सदमे दिए?
कानों में फुसफुसाते रहे- शुक्र करो! तुमने दुनिया तो देखी !

वक्त तुम्हारा निर्दयी चेहरा यूँ शर्म से तार-तार क्यूं है?
वक्त! क्या वाकई वक्त बदला है?