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Thursday, August 1, 2013

मैं- माने आज का बुरबक कल का विवेकी कहाँ रहूँगा (एक डिस्टोपिया)


इस तरह रहा तो मैं कहीं का नहीं रहूँगा, 
न इसका, न उसका, 
कोई टैंकर में मिला पिला जाता है दारू, 
कोई परिवार के जन-जन को पहुँचा जाता है पाँच हजार, 
कोई भोर, मूँह छिपाए, आकर बाँट जाता है फर्जी आईडी, असल बीपीएल कार्ड, 

मैं सोचता हूँ वह एक दिन, 
ब कुम्भकर्ण को भी कर दूंगा पानी-पानी,
न भरेगी पेट मेरी, न रेंगेगी कान पर जूँ,
कैसे करेंगे जनताजनार्दन मेरी भरपाई?
क्या वायदे होंगे?
कैसी खेली जाएगी बिसात?
क्या होंगे सवाल और कैसे पेश किये जायेंगे जवाब?
जब राम-अल्लाह की बात सुन लोग जम्हाई लेना भी समझेंगे तौहीन,
न जाति, न नस्ल, न लिंग, न भाग्य, न मोक्ष, न जिहाद, न जन्नत,
न नक्सल, न दंगल, न टीवी, न मिड डे मील,
न मिक्सर, न लैपटॉप, न खाद्य सुरक्षा बिल,
न ये न वो, हेन-तेन
कर पायेंगे मेरी क्षूधा शांत,
बताओ तो कौन से असलाह होंगे जो दागे जायेंगे?
ताकि रोक दें मेरी एक जुम्बीश भर भी.
कैसे करेंगे ये झंडाबरदार मेरा सामना?
कि ‘सब ठीक है न’? पूछ भर लेने से
क्या उनके पांवों को लग जायेगी घिग्घी?
धडकनों को मार जाएगा लकवा?
कि एक कदम चलने पर ही जवाब दे देंगी पसलियाँ
और हर एक डॉक्टर लटका देगा नो एडमिशन,
क्या महज़ देख भर लेने से पसीने-पसीने हो जायेंगे वो?
कि जूते, थूक, पिटाई-लताई की पड़ेगी न कोई ज़रुरत,
क्या होगा मेरा देश के आर्किटेक्टों का,
भय होता है, कि सियासी बिजनेस को जब लग जाएगा
आम आदमी के विवेक का दीमक.
तो दर-दर भटकने के भी नहीं रहेंगे लायक,
इस तरह रहा तो मैं कहीं का नहीं रहूँगा,
क्योंकि मुझ जैसा नकारा,
केवल बतियाने-गपियाने को बना है.
और तब के जोकरों के तर्ज पर,
कहूँगा,
कविता ख़तम, राजनेता हजम.

पर हो चुकी होगी बड़ी देर
कहाँ रहूँगा मैं भी?
तब तक गर सरजमीं होगी तो होंगे अमूमन पचास हिस्से.
कहाँ रहेगी मेरी माँ, मेरी बेटी, मेरे बिरादर,
मुल्क का कौन सा हिस्सा होगा मेरे अपनों के नाम,
इस तरह रहा तो मैं कहीं का नहीं रहूँगा.

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